Book Title: Chaudaha Gunsthan
Author(s): Shitalprasad, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 22
________________ चौदह गुणस्थान घाय चवक्कय विरयं, नंत चतुस्टय भावना सुधं ।(३९) कम्ममल पयडि तिक्तं, न्यान सहावेन सूक्षमं परमं ।।६९६ ।। अन्वयार्थ -यह साधु (घाय चवक्क्य विरयं) चार घातिया कर्मों से विरक्त है (नंत चतुस्टय भावना सुधं) अनन्त ज्ञानादि चतुष्टय की शुद्ध भावना में लीन है (कम्ममल पयडि तिक्तं) सर्व कर्म प्रकृतियों के उदय से ममता रहित है (न्यान सहावेन परमं सूष्म) आत्मज्ञान के स्वभाव में ठहरकर परम सूक्ष्म आत्मा का अनुभव करता है। भावार्थ - दसवें गुणस्थानवर्ती साधु के अन्तरंग में पूर्व अभ्यास से यह भावना वर्त रही है कि किसी भी तरह घातिया कर्मों का नाश होकर आत्मा के स्वाभाविक अनन्त ज्ञानादि गुणों का विकास हो। वह सर्व कर्मों के उदय को नहीं चाहता है, केवल शुद्ध आत्मा का प्रेमी है। वह निश्चय ध्यान में तिष्ठकर अतीन्द्रिय आत्मा का स्वाद लेता है। श्री गोम्मटसार में कहा है - "जैसे धुले हुए कौसुंभी वस्त्र के लालपना बहुत सूक्ष्म रह जाता है, वैसे जो साधु अत्यन्त सूक्ष्म राग सहित है; वह सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान वाला जानने योग्य है। यह साधु वीतराग चारित्र के अनुभव में किंचित् ही कम है।" उपशांतमोह गुणस्थान मोहनीय कर्म, बिल्कुल उपशम हो गया है (संसार सरनि तिक्तं) जो संसार के कारण भावों से रहित हो गए हैं (सव्वहा सव्वे पुनः उवसंतो) जहाँ सर्वथा सर्व शुभ भावों की भी शांति हो गई है, एक वीतराग यथाख्यात चारित्र है, वह उपशांत मोह नाम का ही ग्यारहवाँ गुणस्थान है। ___ भावार्थ - उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाला साधु दसवें गुणस्थान से ग्यारहवें में आता है। यह साधु या तो द्वितीयोपशम सम्यक्त्वी या क्षायिक सम्यक्त्वी होता है। इसलिए सम्यक्त्व घातक सातों प्रकृतियाँ उपशम हो रही हैं तथा चारित्र मोहनीय सम्बन्धी इक्कीस कषायों का यह शुक्लध्यान के बल से उपशम कर चुका है। सर्व प्रकार मोहनीय कर्म के उदय न रहने से यहाँ यथाख्यात चारित्र या नमूनेदार वीतरागता प्रगट है। यहाँ न अशुभ भाव है न कोई शुभ भाव है मात्र शुद्धोपयोग है, शुक्ललेश्या है। यहाँ सिवाय साता वेदनीय के और किसी कर्म का आस्रव नहीं होता है। यह भी ईर्यापथ आस्रव है। दूसरे ही समय में उसकी निर्जरा हो जाती है। कषायों के न होने से स्थिति व अनुभाग नहीं पड़ता है। यह दशा अन्तर्मुहर्त से अधिक नहीं रहती है। आत्मबल की कमी से फिर लोभ का उदय आ जाता है और यहाँ से गिरकर दसवें में या धीरे-धीरे सातवें तक आ जाता है। सातवें से फिर एक दफे उपशम श्रेणी चढ़ सकता है या तद्भव मोक्षगामी क्षपक श्रेणी चढ़ सकता है। यदि संसार अधिक हो तो और भी नीचे के गुणस्थानों में यहाँ तक कि मिथ्यात्व में भी जा सकता है। सुधो सुधोदेसो, सुधो परमप्प लीन संजुत्तो।(४१) क्षिउ उवसम संसुधो, न्यान सहावेन चरन्ति तवयरनं ।।६९८ ।। अन्वयार्थ - (सुधो सुधोदेसो) उपशांत कषाय गुणस्थानवर्ती साधु वीतराग हैं वशुद्ध शासन या श्रुतज्ञान के धारी हैं (सुधो परमप्प लीन संजुत्तो) उपशांतमोह गुणस्थान उवसंतो य कषायं, दर्सन मोहंध उवसमं सुधं ।(४०) संसार सरनि तिक्तं, उवसंतो पुनः सव्वहा सव्वे।।६९७ ।। अन्वयार्थ - (दर्सन मोहंध उवसमं सुधं) जहाँ दर्शन मोहनीय कर्म का बिल्कुल उपशम या क्षय हो गया है (उवसंतो य कषायं) तथा चारित्र (22)

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