Book Title: Chaudaha Gunsthan
Author(s): Shitalprasad, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 19
________________ ३४ चौदह गुणस्थान अन्वयार्थ - (दंसन दहविहि भेयं) सम्यग्दर्शन दश भेदरूप हैं तथा (पंच भेयन्यानं उवएस) ज्ञान पाँच प्रकार हैं ऐसा उपदेश साधुजन देते हैं। (तेरह विहस्य चरनं) तेरह प्रकार चारित्र पालते हैं। (न्यान सहावेन हुंति महावयं) आत्मज्ञान के स्वभाव में तिष्ठना यह जिनके शुद्ध महाव्रत हैं। भावार्थ - निग्रंथ साधु स्वयं पाँच महाव्रत, पाँच समिति व तीन गुप्ति, ऐसे तेरह प्रकार चारित्र पालते हुए अपने उपदेश में बताते हैं कि सम्यग्दर्शन दस प्रकार का है। उनका स्वरूप पहले कह चुके हैं तथा यह भी बताते हैं कि ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल - ऐसे पाँच भेद हैं। वे साधु शुद्ध आत्मा के ध्यान में नित्य मगन रहते हैं, यही उनका निश्चय महान् व्रत है। ध्यानं च धम्म सुक्कं, आरतिरौद्रं न दिस्टि दिस्टंतो।(३३) अप्पा परमप्पानं, न्यान सहावेन महावयं हृति।।६९० ।। अन्वयार्थ - (ध्यानं च धम्म सुक्कं) जो धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान को ही मोक्षमार्ग जानते हैं (आरति रौद्रं दिस्टि न दिस्टंतो) आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान पर अपनी दृष्टि नहीं देते हैं। (अप्पा परमप्पानं) आत्मा को परमात्मारूप जानकर ध्याते हैं। (न्यान सहावेन महावयं हुंति) ज्ञान स्वभाव से उनके महाव्रत होता है। भावार्थ - यह छठे प्रमत्त गुणस्थानवर्ती साधु अन्तरङ्ग से ज्ञानपूर्वक महाव्रतों को पालते हैं। धर्म-ध्यान का तो अभ्यास करते हैं; परन्तु शुक्लध्यान को पाने की भावना भाते हैं। शुक्लध्यान आठवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है। आर्त व रौद्रध्यान से अपनी रक्षा करते हैं। आत्मा को परमात्मा रूप जानकर निरन्तर आत्मा का ही अनुभव करते हैं। निग्रंथ पद छठे गुणस्थान से प्रारम्भ है। गोम्मटसार में कहा है - "सकल संयम को रोकने वाली प्रत्याख्यानावरण कषाय के उपशम से जिसके पूर्ण संयम है; परन्तु साथ में चार संज्वलन कषाय तथा नौ प्रमत्तविरत गुणस्थान नोकषाय के उदय से संयम में मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी है, इसलिए इस गुणस्थान को प्रमत्तविरत कहते हैं। यह महाव्रती सम्पूर्ण मूलगुण और शील भाव से युक्त होते हुए भी प्रगट (अनुभवगोचर) व अप्रगट प्रमाद को रखने वाले हैं। इनका आचरण चित्रल होता है अर्थात् कभी तो यह ध्यानमग्न हो जाते हैं, कभी यह आहार-विहार करते हैं या धर्मोपदेश देते हैं।" सातवें से लेकर सर्व गुणस्थान ध्यानमयी ही हैं। इस छठे गुणस्थान में ही मुनि के प्रवृत्ति रूप चारित्र होता है। इस गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त है, फिर सातवाँ हो जावे । सातवें से छठा हो जावे ऐसा बार-बार हो सकता है। पंचम गुणस्थान का काल अंतर्मुहूर्त भी है व जीवनपर्यन्त भी (रहता) है। आगे के सर्व गुणस्थानों का काल अंतर्मुहूर्त है, मात्र तेरहवें का जीवनपर्यन्त है, उसमें चौदहवें गुणस्थान का काल रह जाता है। प्रमादों का विशेष स्वरूप गोम्मटसार से जानना चाहिए। अप्रमत्तविरत गुणस्थान अप्रमत्त अप्रमानं, धम्मं सुक्कं चझान निम्मलं सुधं ।(३४) अवहि रिधि संजुत्तो, षिउ उवसम भाव सुंसुधं ||६९१ ।। अन्वयार्थ - (अप्रमत्त अप्रमानं) अप्रमत्त गुणस्थान प्रमाण नय आदि की कल्पना से रहित है (धम्म सुक्कं च झान निम्मलं सुधं) वहाँ शुक्लध्यान की भावना सहित व शुक्लध्यान का कारण निर्दोष शुद्ध धर्मध्यान है (अवहि रिधि संजुत्तो) किसी को अवधिज्ञान प्राप्त होता है (क्षिउ उवसम भाव सुंसुधं) यहाँ शुद्ध क्षयोपशम भाव है। (19)

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