Book Title: Chaudaha Gunsthan
Author(s): Shitalprasad, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ २८ चौदह गुणस्थान श्रद्धानी है, वही अविरत सम्यग्दृष्टि है । अपि शब्द से यह सूचित होता है। कि वह निरर्थक न तो इन्द्रियों की प्रवृत्ति करता है न हिंसादि पाप करता है तथा उसमें चार गुण भीतर झलकते हैं - (१) प्रशम - शांत भाव, (२) संवेग-धर्म से प्रेम, संसार से वैराग्य, (३) अनुकम्पा - प्राणी मात्र पर दया, (४) आस्तिक्य-तत्त्वों पर पूर्ण विश्वास, लोक-परलोक, पुण्य-पाप, की श्रद्धा । यद्यपि वह व्रती नहीं है; तथापि व्रती होने की भावना रखता हुआ बहुत सम्हाल के प्रवृत्ति करता है । ... ५ देशविरत गुणस्थान देस व्रितिसंत्तं, एको उद्देस वय गहई सुधं । (२३) अविश्य गुन संत्तं स्रुत न्यानं च भाव उववनं ।। ६८० ।। अन्वयार्थ - (देस व्रिति संजुत्तं) जो सम्यक्त्वी जीव अणुव्रतों को धारता है (एको उद्देस वय सुधं गहई) एकदेश शक्ति के अनुसार व्रतों को निर्दोष पालता है (अविरय गुन संजुत्तं) तथापि व्रत रहित भाव को भी साथ में लिये हुए हैं (स्रुत न्यानं च भाव उववंनं) परन्तु जो भाव श्रुतज्ञान विशेषपने प्राप्त किये हुए हैं। अर्थात् जिसका आत्मानुभव बढ़ गया है, वही पंचम गुणस्थानवर्ती देशव्रती श्रावक है। भावार्थ - जब अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उपशम हो जाता है, तब सम्यक्त्वी प्रतिज्ञावान होता है। वह अहिंसादि पाँचों व्रतों को पूर्ण न ग्रहण करके एकदेश पालने लगता है। जितने अंश में पाँच पापों का त्यागी होता है, उतने अंश में व्रती है, जितने अंश का त्यागी नहीं होता है, उतने अंश का अव्रती हैं। कषायों की मलिनता विशेष दूर हो जाने से यह सम्यक्त्वी जीव चौथे दरजे की अपेक्षा अधिक शुद्धात्मा का अनुभव कर सकता है। (16) देशविरत गुणस्थान २९ दंसन वय सामाई, पोसह सचित्त रायभत्तीए । (२४) भारंभ परिग्गह, अनुमन उद्दिस्ट देस विरदो य ।। ६८१ ।। अन्वयार्थ - (दंसन वय सामाई ) ग्यारह प्रतिमाएँ या श्रेणियाँ इस पंचम गुणस्थान में होती हैं । १. दर्शन प्रतिमा, २. व्रत प्रतिमा, ३. सामायिक प्रतिमा, (पोसह सचित रायभत्तीए) ४. प्रोषधोपवास प्रतिमा, ५. सचित्तत्याग प्रतिमा, ६. रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा, (बंभारंभ परिग्गह), ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा, ८. आरम्भत्याग प्रतिमा, ९. परिग्रहत्याग प्रतिमा, (अनुमनु उद्दिस्ट - देस विरदो य) १०. अनुमतित्याग प्रतिमा, ११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा । ये सर्व देशव्रती हैं। भावार्थ - दर्शन प्रतिमा से चारित्र का धारना प्रारंभ होता है। फिर प्रत्येक श्रेणी में चारित्र पहला बना रहता है और कुछ बढ़ जाता है। इस तरह बढ़ते-बढ़ते ग्यारहवीं प्रतिमा में वह साधु के निकट पहुँच जाता है। ऐलक एक लंगोटी मात्र रखते हैं, उसके त्याग देने से निर्ग्रथ मुनि हो जाते हैं । इन प्रतिमाओं का विस्तारपूर्वक कथन गाथा ३०१ से ३३७ पर्यंत पहले किया जा चुका है। पंच अनुव्वयाइं, व्रत तप क्रियं च सुध सभावं । (२५) न्यान सहावदि सुधं सुधं च अप्प परम पदविंदं । । ६८२ ।। अन्वयार्थ - (पंच अनुव्वयाइं ) श्रावक पाँच अणुव्रतों का धारी होता है (व्रत तप क्रियं च सुध सभावं) शुद्ध भावों के साथ यह श्रावक व्रत, तप व क्रिया का आचरण पालता है (न्यान सहावदि सुधं) उसका ज्ञान स्वभाव व रत्नत्रयमयी भाव शुद्ध होता है (सुधं च अप्प परम पदविंदं) वह शुद्ध आत्मा को व परम पद मोक्ष का अनुभव करता है। भावार्थ - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग - इनका एकदेश पालना; अणुव्रत है। संकल्पी हिंसा त्यागना, स्थूल असत्य व चोरी त्यागना, स्व- स्त्री में संतोष रखना व सम्पत्ति का प्रमाण कर लेना; ऐसे पाँच अणुव्रतों को यह श्रावक शुद्ध सम्यक्त्व भाव से पालता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27