Book Title: Chaturvinshati Jin Stotrani
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 1
________________ जुलाई-२००७ __ श्री देवभद्रसूरि रचित चतुर्विंशति-जिन स्तोत्राणि म० विनयसागर वाणीकी सफलता और हृदय की अनुभूति का उद्रेक ही स्तोत्रों का प्रमुख विषय रहा है । जिनेश्वरों के पाँच कल्याणकों के अतिरिक्त उनसे सम्बन्धित जितनी भी वस्तुएँ स्थान हैं, उनके माध्यम/वर्णन से कृतकृत्य होना ही जीवन की सफलता का आधार है। प्रस्तुत स्तोत्रों में उनके गुणगौरव यशोकीर्ति का उल्लेख कम है, उनके वर्णनों/स्थानों का उल्लेख अधिक है । इस कृति की दुर्लभ प्रति श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, मुनिराजश्री पुण्यविजयजी के संग्रह में उपलब्ध है । सूचीपत्र भाग-१, क्रमाङ्क १३७८, परिग्रहणाङ्क नम्बर ७२५४ (१) पर सुरक्षित है। पत्र संख्या ५ है । साईज ३० x ११-४, पंक्ति २० और अक्षर संख्या ५८ है। लेखनकाल संवत् १५५० है । इस स्तोत्र का प्रारम्भ - सिरि अजियनाह वइसाह - से प्रारम्भ होता है । गाथा संख्या १९२ है । प्रणेता प्रथम ऋषभदेव स्तोत्र गाथा ८ में देवभद्दाइं और वर्द्धमान स्तोत्र गाथा ८ में देवभद्दाइं शब्द का रचनाकार ने प्रयोग किया है । इससे स्पष्ट है कि इस कृति के प्रणेता देवभद्रसूरि हैं । इसमें कहीं भी अपनी गुरु-परम्परा और गच्छ का उल्लेख नहीं किया है । लिखित प्रति १५५० की होने के कारण इससे पूर्व ही देवभद्रसूरि के सम्बन्ध में विचार आवश्यक है। १. देवभद्रसूरि - नवाङ्गीटीकाकार श्री अभयदेवसूरि के विनेय शिष्य हैं । इनका दीक्षा नाम गुणचन्द्रगणि था और आचार्य बनने के पश्चात् देवभद्रसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । इनके द्वारा प्रणीत वीरचरित्र, कहारयणकोष (रचना सं. ११५८) और पार्श्वनाथ चरित्र (रचना सं. ११६५) के प्राप्त हैं । २. देवभद्रसूरि - चन्द्रगच्छ, बृहद् गच्छ, पिप्पलक शाखा के प्रवर्तक हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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