Book Title: Chandonushasanam
Author(s): Vinaysagar
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 1
________________ मार्च २००९ श्रीमज्जिनेश्वरसूरि-ग्रणीतम् श्रीनिचळसूविरचित-विवृत्युपेतम् छन्दोनुशासनम् म. विनयसागर क्षीरस्वामी ने छन्द और छन्दस् पदों की नियुक्ति छद धातु से बतलाई है। अन्य आचार्यों के मत से छन्द शब्द 'छदिर् ऊर्जने, छदि संवरणे, छदि आह्लादने दीसौ च, छद संवरणे, छद अपवारणे' धातुओं से निष्पन्न है । व्यावहारिक दृष्टिकोण से छन्द अक्षरों के मर्यादित प्रक्रम का नाम है । जहाँ छन्द होता है वहीं मर्यादा आ जाती है । मर्यादित जीवन में ही साहित्यिक छन्द जैसी स्वस्थ-प्रवाहशीलता और लयात्मकता के दर्शन होते हैं । भावों का एकत्र संवहन, प्रकाशन तथा आह्लादन छन्द के मुख्य लक्षण है । इस दृष्टि से रुचिकर और श्रुतिप्रिय लययुक्त वाणी ही छन्द कही जाती है - 'छन्दयति पृणाति रोचते इति छन्दः ।' वैदिक संहिता और काव्यशास्त्रो में विशुद्ध और लयबद्ध उच्चारण छन्दशास्त्र के ज्ञान से ही सम्भव है । वेद के षडङ्ग में छन्द को भी ग्रहण किया गया है । छन्द के प्राचीन आचार्य शिव और बृहस्पति माने जाते हैं । संस्कृत छन्दशास्त्र में आचार्य पिङ्गल द्वारा रचित पिङ्गल छन्दसूत्र ही प्राचीनतम माना जाता है। कुछ विद्वान् पिङ्गल को पाणिनी के पूर्ववर्ती मानते हैं और कुछ विद्वान् पाणिनि का मामा मानते हैं। राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर जैसलमेर ग्रन्थोद्धार योजना फोटोकॉपी नं. २३१, प्लेट नं. ७, पत्र १३ ताड़पत्रीय प्रति १२ वीं सदी का अन्तिम चरण और १३ वीं शताब्दी का प्रथम चरण की है। इसी फोटोकॉपी के आधार से मैंने दिसम्बर १९७० में इसकी प्रतिलिपि की थी । १२वीं-१३वीं शताब्दी की छन्दोशासन की प्रति होने के कारण उस शताब्दी पर दृष्टिपात करते हैं तो सुविहितपथप्रकाशक और खरतरविरुदधारक श्रीजिनेश्वरसूरि के अतिरिक्त अन्य कोई इस नाम का आचार्य दृष्टिगत नहीं होता । साथ ही वादी देवसूरि के गुरु सौवीरपायी श्रीमुनिचन्द्रसूरि के अतिरिक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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