Book Title: Bruhatkalp Sutram Pithika Part 01
Author(s): Sheelchandrasuri, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: Prakrit Granth Parishad

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Page 9
________________ लघुभाष्य में कई नियुक्ति गाथाएँ मिल गई है, अतः लघुभाष्य में कितनी गाथाएँ नियुक्ति की है इसका पृथक्करण असम्भव है / वृत्तिकार, चूर्णिकार तथा विशेषचूर्णिकार ने कहीं कहीं 'एसा चिरंतनगाहा,' 'एसा पोराणिका गाहा,' सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिगाथा' कहकर नियुक्ति गाथा का उल्लेख किया है। बृहत्कल्पचूर्णि : जैन संस्कृति में साधना का स्थान सर्वोच्च है। श्रमण साधना के प्रतिपादक छेदसूत्र एवं उन पर के व्याख्यासाहित्य का प्रत्येक पृष्ठ साधना के उज्ज्वल-समुज्वल आलोक से आलोकित है। साधक अपने जीवन को त्याग, तप, स्वाध्याय और ध्यान रूप सरिता के निर्मल जल से आत्मा को विशुद्ध कर भव सागर को पार करता है। जैन साधना के दो पथ है। एक उत्सर्ग और दूसरा अपवाद / उत्सर्ग शब्द का अर्थ है मुख्य और अपवाद शब्द का अर्थ है गौण। उत्सर्ग मार्ग का अर्थ है आन्तरिक जीवन, चारित्र और सद्गुणों की रक्षा, शुद्धि और अभिवृद्धि के लिए प्रमुख नियमों का विधान और अपवाद का अर्थ है आन्तरिक जीवन की रक्षा के लिए उसकी शुद्धि-वृद्धि के लिए बाधक नियमों का विधान / उत्सर्ग और अपवाद दोनों का एक ही लक्ष्य है संयम की विशुद्धि / एकान्त उत्सर्ग मार्ग का विधान या अपवाद मार्ग का विधान कभी कभी संयमी के लिए घातक भी हो सकते हैं अतः ये सापेक्ष हैं / मानव की शारीरिक और मानसिक दुर्बलता को ध्यान में रखकर ही गीतार्थ आचार्यों ने उत्सर्ग और अपवाद मार्ग का निरूपण किया है / बृहत्कल्पचूर्णिकार कहते हैं-'समर्थ साधक-सहिष्णु के लिए उत्सर्ग स्थिति में जिन द्रव्यों का निषेध किया है, असमर्थ-असहिष्णु साधक लिए अपवाद की परिस्थिति में विशेष कारण वश वह वस्तु ग्राह्य भी हो जाती है।' जो बातें उत्सर्ग मार्ग में निषिद्ध की गई है वे सभी बातें कारण के उपस्थित होने पर कल्पनीय व ग्राह्य भी हो जाती है / क्योंकि उत्सर्ग और अपवाद दोनों का लक्ष्य एक ही रहा है। वे एक दूसरे के पूरक हैं / जो साधक बिना कारण ही उत्सर्ग मार्ग को छोड़कर अपवाद मार्ग को अपनाता है वह आराधक नहीं अपितु विराधक माना जाता है। बृहत्कल्प चूर्णि मूलसूत्र और उस पर लिखे हुए लघु भाष्य पर लिखी गई संक्षिप्त व्याख्या है / इस चूणि का प्रारम्भिक अंश दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णी से बहुत कुछ मिलता है / सम्भवतः दशाश्रुतस्कन्धचूर्णी बृहत्कल्प चूर्णी के पूर्व लिखी गई है और दोनों एक ही आचार्य की रचना है ऐसा लगता है। इस चूर्णि के रचनाकार कौन थे इस विषयक जानकारी हमें प्राप्त नहीं / क्योंकि बृहत्कल्प चूर्णि में कही भी कर्ता ने अपने नाम का उल्लेख नहीं किया है / रचना समय भी नहीं मिलता / 1. उस्सग्गेण णिसिद्धाइं जाइँ दव्वाइँ संथरे मुणिणो / कारणजाए जाते, सव्वाणि वि ताणि कप्पंति // बृ०क०भा० 3327

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