Book Title: Bramhacharya Vaigyanik Vishleshan Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 4
________________ चुंबकीय आकर्षण बढ़ जाता है और यदि विधुदप्रवाह का चक्र पूरा हो जाय तो दोनों के बीच तीव्र आकर्षण पैदा होता है । परिणामतः संयमी पुरुष का पतन होता है । __ ब्रह्मचर्य की चौथी बाड़ के अनुसार स्त्री को पुरुष के व पुरुष को स्त्री के नेत्र, मुख इत्यादि अंगों को स्थिर दृष्टि से नहीं देखने का भी यही कारण है। ब्रह्मचर्य की तीसरी बाड़/नियम के अनुसार स्त्री-पुरुष को एक आसान ऊपर नहीं बैठना व जिस स्थान पर स्त्री बैठी हो उसी स्थान पर ब्रह्मचारी पुरुष को 48 मिनिट व जिस स्थान पर पुरुष बैठा हो उसी स्थान पर स्त्री को 3 घंटे तक नहीं बैठना चाहिये । कोई भी मनुष्य किसी भी स्थान पर बैठता है उसी समय उसके शरीर के इर्दगिर्द उसके विचार के आधार पर अच्छा या दूषित एक वातावरण बन जाता है । उसके अलावा जहाँ कहीं बैठे हुये स्त्री या पुरुष के शरीर में से सूक्ष्म परमाणु उत्सर्जित होते रहते हैं। | उसी परमाणु का कोई बुरा प्रभाव हमारे चित्त पर न हो इस कारण से ही | ब्रह्मचर्य की नौ बाड़ में इसी नियम का समावेश किया गया है। ब्रह्मचर्य की पाँचवीं बाड़ में कुड्यन्तर का त्याग बताया है और छटी बाड़ में पूर्व के गृहस्थावास में की गई कामक्रीडा के स्मरण का त्याग बताया है । उपर्युक्त दोनों प्रकार के कार्य से मनुष्य का जैविक विद्युचुंबकीय क्षेत्र विकृत बनता है । वस्तुतः अपने शुभ या अशुभ विचार ही अपने जैविक विधुचुंबकीय क्षेत्र को अच्छा या बुरा बनाता है । इसी जैविक विद्युचुंबकीय क्षेत्र को आभामंडल भी कहा जाता है । इसकी विशेषता यह है कि उसको मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी दिशा में फैला सकता है । अतः किसी भी विजातिय व्यक्ति संबंधित अशुभ विचार भी दोनों के बीच परस्पर मानसिक आकर्षण पैदा करता है । वाद में दोनों के बीच मानसिक संयोग होने पर अज्ञात रूप से अदृश्य मैथुन सेवन । अनाचार होकर ब्रह्मचर्य व्रत का खंडन हो जाता है | । स्त्री-पुरुष के परस्पर विरुद्ध ध्रुवों का संयोजन पाँच प्रकार से हो सकता है । 1. साक्षात् मैथुन से, 2. सिर्फ स्पर्श से, 3. रूप अर्थात् चक्षु से, 4. शब्द अर्थात् वाणी या वचन से और 5. मन से । अतएव ब्रह्मचर्य का संपूर्ण नैष्ठिक पालन करने वाली व्यक्ति को शास्त्रकारों ने विजातिय व्यक्ति का 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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