Book Title: Bramhacharya Vaigyanik Vishleshan Author(s): Nandighoshvijay Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf View full book textPage 5
________________ तनिक भी स्पर्श करने की या उसके सामने स्थिर दृष्टि से देखने की उसके साथ बहुत लंबे समय तक बातचीत करने की या मन से उसका | विचार करने की मनाई की है। | तत्त्वार्थ सूत्र नामक जैन ग्रंथ के चौथे अध्याय में प्राप्त देव संबंधित | वैषयिक सुख का वर्णन उपर्युक्त बात का साक्षी है । तत्त्वार्थ सूत्रकार श्री उमास्वातिजी कहते हैं कि इशान देवलोक तक के देव साक्षात् मैथुन द्वारा उससे ऊपर के देव अनुक्रम से केवल स्पर्श द्वारा, केवल चक्षु द्वारा, केवल वचन द्वारा, व केवल मन द्वारा अपनी कामेच्छा की पूर्ति करते हैं। ___ ब्रह्मचर्य के पालन के लिये अतिस्निग्ध, पौष्टिक या तामसिक आहार का त्याग करना चाहिये । सामान्यतः साधु को दूध, दही, घी, गुड, सक्कर, तेल, पक्वान्न, मिठाई का आहार करने की मनाई की गयी है क्योंकि ये सभी पदार्थ शरीर में विकार पैदा करने में समर्थ हैं । किन्तु जो साधु निरंतर साधना, अभ्यास, अध्ययन, अध्यापन इत्यादि करते हैं या शरीर से अशक्त हों तो इन सब में से कोई पदार्थ गुरु की आज्ञा से ले सकता है। यदि शरीर को आवश्यकता से ज्यादा शक्ति मिले तो भी विकार पैदा होत है । अतः ब्रह्मचर्य के पालन के लिये अतिस्निग्ध, पौष्टिक या तामसिका आहार का त्याग करना चाहिये । ठीक उसी तरह रूख्खा सुखा आहार भी ज्यादा प्रमाण में लेने पर भी शरीर में विकार व जड़ता पैदा करता है । अतएव ऐसा रुक्ष आहार भी मर्यादित प्रमाण में लेना चाहिये । केश, रोम, नख को आकर्षक व कलात्मक रूप से काटना या स्नान-विलेपन करना ब्रह्मचारी के लिये निषिद्ध है क्योंकि ब्रह्मचारीओं का व्यक्तित्व ही स्वभावतः तेजस्वी . ओजस्वी होता है । अतः उनको स्नान-विलेपन करने की आवश्यकता नहीं है । यदि वे स्नान-विलेपन इत्यादि करें तो ज्यादा देदीप्यमान बनने से अन्य व्यक्ति के लिये आकर्षण का केन्द्र बनते हैं । परिणामतः क्वचित अशुभ विचार द्वारा विजातिय व्यक्ति का मन का चुंबकीय क्षेत्र मलीन होने पर उसके संपर्क में आने वाले साधु का मन भी मलीन होने में देर नहीं लगती । अतएव साधु को शरीर अलंकृत नहीं करना चाहिये या स्नान-विलेपन नहीं करना चाहिये । इन नव नियमों का बड़ी कडाई से जो पालन करते है उनके लिये 58 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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