Book Title: Bramhacharya Vaigyanik Vishleshan
Author(s): Nandighoshvijay
Publisher: Z_Jain_Dharm_Vigyan_ki_Kasoti_par_002549.pdf

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Page 1
________________ 10 ब्रह्मचर्य : वैज्ञानिक विश्लेषण आज समग्र विश्व में अनाचार से फैलनेवाला एइड्झ रोग व्यापक हो चुका है, तब इस रोग से बचने के लिये केवल एक ही उपाय बचा है । वह है परिणत गृहस्थों के लिये स्वदारासंतोषविरमण व्रत अर्थात् एकपत्नीत्व तथा | अन्य व्यक्ति के लिये ब्रह्मचर्य का पालन ही है । आजका समाज विज्ञान की सिद्धियों से इतना प्रभावित है कि किसी भी विषय में केवल विज्ञान के निष्कर्षों को ही अंतिम सत्य मानकर चलता है । किन्तु प्रत्येक क्षेत्र के विज्ञानी स्वयं स्वीकार करते हैं कि हमने प्रकृति के बहुत से रहस्य उद्घाटित किये है तथापि उनसे भी ज्यादा रहस्य उद्घाटित करना बाकी है । अतः विज्ञान के क्षेत्र में किसी भी अनुसंधान को अंतिम सत्य या निरपेक्ष सत्य के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिये । सामान्यतः मनुष्य व सभी प्राणी का स्वभाव है कि उनके अनुकूल हो उसे वह जल्दी से स्वीकार कर लेता है । सभी प्राणीयों में आहार, भय, मैथुन और परिग्रह की संज्ञा अर्थात् भाव अनादि काल से इतना प्रबल है कि इन्हीं चार भाव के अनुकूल किसी भी विचार को वह तुरंत स्वीकार कर लेता है । अतएव ब्रह्मचर्य के बारे में किये गये अनुसंधान जितने जल्दी से आचरण में नहीं आते उससे ज्यादा जल्दी से सिर्फ कहेजाने वाले सेक्सोलॉजिस्टों के निष्कर्ष तथा फ्रोइड जैसे मानसशास्त्रियों के निष्कर्ष स्वीकृत हो पाते हैं । हालाँकि उनके ये अनुसंधान बिल्कुल तथ्यहीन नहीं हैं तथापि व् केवल सिक्के की एक ही बाजू है । ब्रह्मचर्य के लिये फ्रोइड की अपनी मान्यता के अनुसार वीर्य तो महान शक्ति है । उसी शक्ति का सदुपयोग करना चाहिये ।। ब्रह्मचर्य का पालन करके मानसिक व बौद्धिक शक्ति बढ़ानी चाहिये । अतः सिक्के की दूसरी बाजू का भी विचार करना चाहिये । I इसके लिये रेमन्ड बर्नार्ड की किताब "Science of Regeneration' देखना चाहिये । उसमें वे कहते हैं कि मनुष्य की सभी जातिय वृत्तियों का संपूर्ण नियंत्रण अंतःस्त्रादि ग्रंथियों के द्वारा होता है । अंतःस्रादि ग्रंथियों को अंग्रेजी में ऍन्डोक्राइन ग्लेन्ड्स कहते हैं । यही ऍन्डोक्राइन ग्लेन्ड्स जातिय रस उत्पन्न करती है और उसका अन्य ग्रंथियों के ऊपर भी प्रभुत्व रहता है। Jain Education International 54 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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