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दीवी देशाना जी। धर्म सदा श्रेय कार ॥ उपसर्ग एह थी मोटा टले। होबे काया को उद्धार ॥ सबी ॥ १२ ॥ संयम मार्ग आदर तो । दुःख कधी नहीं पाय ॥ दोनो लोके सुखीया होवे जी । अजरामर पद पाय ॥ सवी ॥ १३ ॥ भव्य वैराग्य मन आण ने जी । किया घणा पञ्चखाण ॥ ऋषिश्वरने वंदना करी जी। आया निज ठिकाण ॥ सबी ॥ १४ ॥ पुण्य प्रभाव थी आरज्यां जी । पधाया करत विहार ॥ भुवन सुन्दरी आणन्दने जी । मांगे आज्ञा ते वार ॥ सबी ॥ १५ ॥ प्रताप सेण कहे मीठास थी । तुज अजु वय छे बाल ॥ पडती वये संयम लीजो । अब्बी भोगवो भोग विशाल ॥ सब ॥ १६॥ सती कहे वनमें जो मरती तो । कोण भोगवतो भोग ॥ धर्म पसाये हूं बची । तेही आदर स्यूं जोग ॥ सबी ॥ १७॥ उत्तर प्रत्युत्तर हुया घणाजी ।। दिक्षा मौछब कराय ॥ वह ठाटे बहू जनमिली जी । आया वाग के मांय ॥सबी ॥१८॥ लोच करी दिक्षा ग्रही जी। अति आणंद मन लाप ॥ परिवार श्रावक वृत ग्रही। धरी उदासी घर जाय ॥ सबी ॥ १९ ॥ सती ज्ञान उद्यम करी जी । तपस्या मांडी करुर । संथारो कर स्वर्गे गइ । आगे पावसी शिव सुख पूर ॥ सबी ॥२०॥ इम जाणी सील आal राधीये जी। नर नारी धर प्रेम ॥ एका दश ढाल अमोल कहे। तो पामसा अविल क्षेम ।