Book Title: Bhikshunyayakarnika
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 278
________________ परिशिष्ट २४५ यथा अखिलानि अद्वैतवाददर्शनानि सांख्यदर्शनञ्च । अपारमार्थिकद्रव्यपर्यायविभागाभिप्रायो व्यवहाराभासः, यथा- चार्वाकदर्शनम्। वर्तमानपर्यायाभ्युपगन्ता सर्वथा द्रव्यापलापी ऋजुसूत्राभासः, यथा-तथागतमतम्। कालादिभेदेनार्थभेदमेवाभ्युपगच्छन् शब्दाभासः, यथावैयाकरणः। पर्यायभेदेनार्थभेदमेवमन्वानः समभिरूढ़ाभासः । क्रियाऽपरिणतं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपन् एवंभूताभासः । केवल द्रव्य का ग्रहण करने वाले और पर्याय का निरसन करने वाले विचार को द्रव्यार्थिक नयाभास कहा जाता है। केवल पर्याय का ग्रहण करने वाले और द्रव्य का निरसन करने वाले विचार को पर्यायार्थिक नयाभास कहा जाता है। दो धर्मों को एकान्त भिन्न मानने का जो अभिप्राय है, उसे नैगमनयाभास कहा जाता है। इसके उदाहरण है-- नैयायिक, वैशेषिक दर्शन। सत्ताद्वैत को स्वीकार करने और समग्र विशेष का निरसन करने वाले विचार को संग्रहनयाभास कहा जाता है, इसके उदाहरण हैं- सब अद्वैतवादी दर्शन और सांख्यदर्शन। द्रव्य और पर्याय के अवास्तविक विभाग का स्वीकार करने वाले विचार को व्यवहारनयाभास कहा जाता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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