Book Title: Bhikshunyayakarnika
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 283
________________ २५० भिक्षुन्यायकर्णिका वाच्यतया प्रतिक्षिपन् एवं भूताभासः । अस्यायमभिप्राय:- योऽभिप्रायः शब्दानां क्रियाविष्टं क्रियानुसर-णमर्थमेव शब्दवाच्यं स्वीकरोति । योऽर्थः क्रियायां परिणतो न भवति स खलु अर्थो न शब्दस्यार्थः इत्येवं यः स्वीकरोति स एवंभूताभासः। 8. घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थं, जनो याति सहेतुकम्॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्॥ राजा की पुत्री के पास एक सोने का घड़ा था। राजा के पुत्र ने उस घड़े को तुड़वा कर उसका मुकुट बनवा लिया। घड़े के नष्ट होने पर पुत्री को शोक हुआ। मुकुट की उत्पत्ति होने से पुत्र को हर्ष हुआ। राजा दोनों अवस्थाओं में मध्यस्थ था, क्योंकि उसको सोने से मतलब था, न घड़े से और न मुकुट से। दूध ही पीने वाला व्यक्ति दही नहीं खाता है। दही ही खाने वाला व्यक्ति दूध नहीं पीता है। अगोरस ही खाने वाला व्यक्ति दूध और दही दोनों को नहीं खाता। इसलिए वस्तु त्रयात्मक (उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप) है। जैनदर्शनानुसारं वस्तु उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं भवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 281 282 283 284 285 286