Book Title: Bharatesh Vaibhav Author(s): Ratnakar Varni Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad View full book textPage 4
________________ के नीचे एक वेश्याको ला बिठाकर स्वयं यथावत् शास्त्र सुननेको मैठ गये । उस वेश्याने कुछ समय बाद अपने आभरणोंका शब्द किया तो उन ईर्षाल लोगोंने यह क्या है' ऐसा कहकर उस वेश्याको बाहर निकाला न रत्नाकरका अपमान किया । रत्नाकर एकदम उठकर बहाँसे चला गया। कुछ लोग जाकर बहुत प्रार्थना करने लगे । परन्तु वह पीछे नहीं लौटा । जाते-जाते एक नदीको पार कर रहा था, तब भन्स्तोंने पापयपूर्वक प्रार्थना की तो भी "मुझे ऐसे दुष्टोंका संसर्ग नहीं चाहिए । मैं आज ही इस जैनधर्मको तिलांजलि देता है" ऐसा कहकर उस नदीमें उन गया । वहाँसे उठफर एक पत्रंतपर चला गया । पर्वतपर एक शंवग्रन्थका हाथीपर जुलूस निकालते हुए देखकर उस ग्रन्थको बांधकर उसमें कुछ भी रस नहीं है ऐसा कह दिया । सब लोगोंन राजासे इसकी शिकायत की। रानाने उसे सरस अन्य समझकर उसके सम्मानके लिए आज्ञा दी थी । रत्नाकरको बुलाकर रामा कहने लगा, "तुम्हारा रस कौनसा है" । तब रत्नाकरने ९ मासकी अवधि मांगी। उसके बाद इस भरतेषावैभवको रचकर राजाको दिलाया कि इसमें रस है । तब राजा इस काष्यको सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। बड़े-बड़े विद्वान् इसके काव्यसे मुग्ध हो गये । राजाने कविका पूर्ण सत्कार करके लिंगायत होनेके लिए आग्रह किया, कविने उस राजाको प्रसन्न रखने के लिए लिंगको बाँध लिया । परन्तु कहा कि मैं जिस समय मरूंगा मेरा दाहसंस्कार वगैरह जैन ही करेंगे । मैं बाहरसे लिंगायत होनेपर भी अन्दरसे जैन हूँ एवं यह लिंग नहीं केवल चाँदीकी पेंटी है ऐसा मनमें समज्ञता था । अन्तम जैन होकर ही मर गया । इन दोनों कथाओंको देखनेपर मालूम होता है कि कवि पूर्वमें जैन होफर किसी समय किसी कारणसे लिंगायत बनकर पुनः जैन बन गया था। यद्यपि इस ग्रन्थकी रचना शुभस्पर्धासे हुई है, यह बात उपयुक्त कथा सन्दभोंसे मालूम होती है, तथापि कवि स्पष्ट कहते हैं कि मैंने इस काव्यको किसीके साथ मत्सरबुद्धिसे रचना नहीं की। परमात्माकी मामासे आत्मसंतोषके लिए मैंने इसकी रचना की ! चाहं इसे कोई पसन्द करे या न करे इसकी मुझे पिता नहीं इत्यादि । संसारके नियमानुसार कविने अपने काव्य के प्रति आदरकी अपेक्षा नहीं की तो भी उसका यथेष्ट आदर हुआ । अर्थात् जिस पदार्थकी हम उपेक्षा करते है वह तो हमे मिल जाता है । जिसको हम पाहते हैं, यह हमसे दूर पत्ता जाता है । कविने इस काव्यका आवर एवं अपने लिए कीर्तिकी इच्छा नहीं की। परन्तु वे दोनों बात उसे अनायास ही प्राप्त हुई । कीर्ति पाहनेसे नहीं माती, सस्कार्य करमसे अपने आप माती है। कविकी इतर रचनायें : कविने भरतेशवभवके अलावा रत्नाकरातक, अपराजितरातक, त्रिलोकPage Navigation
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