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भगवान नेमिनाथ
राजीमती ने कहा
मूर्ख ! मैं तुम्हारे जैसे वासना के कीड़ों को छूना भी नहीं चाहती.... अगन्धन कुल में जन्मा सर्प जलती अग्नि में मरना पसन्द करता है। परन्तु उगला हुआ विष वापस नहीं पीता। तुम्हें सौ-सौ धिक्कार है, जो त्यागे हुए भोगों की पुनः इच्छा करते हो....? ऐसे पतित जीवन से तो मृत्यु श्रेष्ठ है...
राजीमती के तीखे तेज वचनों ने स्थनेमि के मन को झकझोर दिया। जैसे अंकुश से हाथी का मद उतर जाता है। वैसे ही स्थनेमि के मन पर से वासना का नशा उतर गया। दूर खड़े-खड़े ही उसने जोर से ध्वनि की
मुझे धिक्कार है। धिक्कार है।
और वह वापस संयम में स्थिर हो गया।
तब तक वर्षा थम चुकी थी। राजीमती गुफा से बाहर | निकली और साध्वियों के साथ भगवान नेमिनाथ की वन्दना करने रैवतगिरि शिखर पर चढ़ने लगी।
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स्थनेमि भी भगवान नेमिनाथ के चरणों में पहुँचा, प्रार्थना करने लगा
भिन्ते ! मेरा मन मोह ग्रस्त होकर निर्लज्ज । हो गया। मैंने राजीमती जैसी महान् साध्वी
को अप्रिय अभद्र वचन कहकर कष्ट पहुंचाया,मुझे प्रायश्चित्त दीजिये प्रभु!/
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