Book Title: Bhagavati Jod 06
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 9
________________ सम्पादकीय तेरापन्थ की आचार्य परम्परा में एक नाम है-श्रीमज्जयाचार्य । उनका जीवन अनेक दृष्टियों से विलक्षण था। उनकी विलक्षणता के कुछ बिन्दु हैं आध्यात्मिक दृष्टिकोण, सृजनशीलता, गंभीर अध्यवसायशीलता, प्रयोगमिता, प्रशासन कौशल, व्यवस्था कौशल, स्वाध्याय प्रियता, दूरदर्शिता, प्रमोद भावना आदि । उनकी सृजनशीलता कई क्षेत्रों में उजागर हुई। उनमें एक व्यापक क्षेत्र है साहित्य का । उन्होंने साहित्य की स्रोतस्विनी अनेक धाराओं में प्रवाहित की। उन धाराओं में एक विशिष्ट धारा है आगम साहित्य का राजस्थानी भाषा में पद्यमय भाष्य । राजस्थानी भाषा में इस धारा के लिए जोड़ शब्द का प्रयोग होता है । जोड़ साहित्य में सर्वाधिक विशाल और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है 'भगवती की जोड़। पांच वर्ष की छोटी सी अवधि में भगवती जैसे आकर ग्रन्थ का किसी दूसरी भाषा में अनुवाद करना भी बहुत श्रमसाध्य और निष्ठासाध्य कार्य है। जयाचार्य ने केवल भाषानुवाद ही नहीं किया, स्थान-स्थान पर समीक्षात्मक टिप्पणियां की हैं। उनकी शोधपूर्ण रचनाशैली की समीक्षा एक स्वतन्त्र ग्रन्थ का विषय है। जयनिर्वाण शताब्दी के ऐतिहासिक अवसर पर भगवती-जोड़ का प्रकाशन शुरु हुआ। अब तक उसके पांच खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ इस शृंखला की छठी कड़ी है। इसमें केवल एक चौबीसवां शतक है। प्रथम और द्वितीय खण्ड में चार-चार शतकों की जोड़ आई है । तीसरे खण्ड में तीन शतक हैं। चौथे खण्ड में चार शतकों की जोड़ है और पांचवें खण्ड में आठ शतकों की। प्रस्तुत खण्ड की जोड़ बहुत विस्तृत नहीं है । पर इसकी रचनाशैली और विषयवस्तु अन्य शतकों से भिन्न है । जैन सिद्धान्तों के आधार पर बनाए गए थोकड़ों में एक है 'गमा रो थोकड़ो' । गमक शब्द का अपभ्रंश या राजस्थानी रूप है गमा। इसके अनेक अर्थ हैं । सूत्रपाठ के सदृश आलापक को गमा कहा जाता है। प्रकार अर्थ में भी यह शब्द प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत सन्दर्भ में स्थिति की अपेक्षा नौ प्रकार से बीस द्वारों की व्याख्या की गई है। यही है 'गमा रो थोकड़ो'। पुराने साधु-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं में इस थोकड़े को कण्ठस्थ करने की प्रवृत्ति थी। मैंने भी कई बार यह नाम सुना, किन्तु इसके बारे में कोई अवधारणा स्पष्ट नहीं हुई। प्रस्तुत खण्ड का काम प्रारंभ करते समय पहले पन्ने में ही अवरोध उपस्थित हो गया। इसका कारण था गमकों के बारे में जानकारी का अभाव। पूरी भगवती की जोड़ में किसी भी शतक के प्रारंभ में जोड़ से पहले कोई पृष्ठभूमि नहीं है। प्रस्तुत शतक में वर्ण्य विषय का पूरा सार-संक्षेप एक वार्तिक में दिया गया है। गमकों के सम्बन्ध में थोड़ी भी जानकारी न हो तो पूरे शतक की जोड़ पढे बिना केवल वार्तिक के आधार पर कुछ भी पल्ले नहीं पड़ सकता। हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ। हमने बार-बार वार्तिक को पढ़ा, किन्तु हमारी समस्या हल नहीं हुई। हमने एक बार वार्तिक को छोड़ जोड़ का काम प्रारम्भ कर दिया। यह काम गुरुदेव के सान्निध्य में बैठकर किया था। इसलिए इसमें कोई अवरोध नहीं आया। जोड़ का काम पूरा हो गया। उसके बाद हमने पुनः वार्तिक को देखा । हमारी समझ की खिड़कियां खुल गई। उसका प्रतिपाद्य स्पष्ट हो गया। भगवती जोड़ के सम्पादन में प्रारंभ से ही मेरे साथ संलग्न साध्वी जिनप्रभाजी ने कहा --'जयाचार्य के लिए यह वातिक बहुत सरल रहा होगा, पर आज के पाठक इसे समझने में कठिनाई का अनुभव करेंगे। इसको आधुनिक दृष्टि से सम्पादित करना आवश्यक लगता है।' यह बात मुझे भी ठीक लगी। मैंने गुरुदेव से निवेदन किया । आपकी स्वीकृति मिल गई । बार्तिक को सम्पादित करने का काम मैंने साध्वी जिनप्रभाजी को सौंप दिया। उन्होंने अपना दिमाग लगाया। वार्तिक को दो-तीन प्रकार से बदलकर देखा । आखिर उन्होंने उसको तीन यन्त्रों में रूपायित कर प्रस्तुत किया। इस प्रस्तुति के बाद उसे समझना सुगम प्रतीत हुआ। इस दृष्टि से हमने जोड़ से पहले वार्तिक के स्थान पर उन यन्त्रों को रखा है। भगवती-जोड़ के पांच खण्डों का काम हमने दो-दो आवृत्तियों में किया था। प्रथम आवृत्ति में गणाधिपति परम पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी के सान्निध्य में गृहस्थों द्वारा लिखित प्रति का मुनि कुन्दनमलजी द्वारा लिखित 'भगवती-जोड़' की प्रति से मिलान किया जाता। दूसरी आवृत्ति में भगवती-जोड़ के आधारभूत-स्थलों-भगवती सूत्र, भगवती वृत्ति आदि का जोड़ के साथ सम्यक् समायोजन किया जाता। इस क्रम से ग्रन्थ के सम्पादन में दुगुना समय लगता। चौबीसवें शतक में सम्पादन की पद्धति बदल दी। इसमें पाठ का Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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