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मिलान तथा पाठ एवं वृत्ति के समायोजन का काम साथ-साथ किया। इसका पूरा काम गुरुदेव की सन्निधि में हुआ। इसलिए अज्ञात विषयवस्तु वाली सामग्री को सम्पादित करने में भी सुविधा हो गई । अन्यथा एक -एक प्रसंग की सम्पन्नता पर दिए गए यन्त्रों को समझने में बहुत कठिनाई रहती ।
चौबीसवें शतक की जोड़ से पहले दिए गए प्रथम यन्त्र में २४ दण्डकों के ४४ घर बताए गए हैं। उन ४४ घरों में ३२१ स्थानों के जीव उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक स्थान के नौ-नौ गमक होते हैं, जैसे
१. औधिक अधिक
२. औधिक - जघन्य
३. अधिक उत्कृष्ट
४. जधन्य अधिक
५. जघन्य जघन्य
६. जघन्य उत्कृष्ट
७. उत्कृष्ट औधिक
८. उत्कृष्ट जघन्य
९. उत्कृष्ट उत्कृष्ट
औधिक का अर्थ है-समुच्चय । जीव की उत्पत्ति के ४४ घरों में आने वाले जीव की जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार की स्थिति का आकलन करने वाला गमक औधिक गमक है। प्रथम गमक में जीव जहां से आया है और जहां उत्पन्न होता है इन दोनों स्थानों की औधिक स्थिति ली गई है। औधिक जघन्य- -इस द्वितीय गमक में जीव जहां से आता है, उसकी औधिक और जहां उत्पन्न होता है, उसकी जघन्य स्थिति का ग्रहण होता है । औधिक उत्कृष्ट - इस तृतीय गमक में जीव जहां से आता है उसकी औधिक और जहां उत्पन्न होता है, उसकी उत्कृष्ट स्थिति का ग्रहण होता है। इस क्रम से ही आगे के छहों गमक ज्ञातव्य हैं ।
४४ घरों में ३२१ स्थानों के जीव उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक स्थान के नौ-नौ गमक होने से ३२१४९ = २८८९ गमक हो जाते
हैं । सब जीवों की सब स्थानों में जघन्य और उत्कृष्ट दानों प्रकार की स्थिति हो तो गमकों का उपर्युक्त आंकड़ा बनता है । किन्तु कुछ जीवों की जघन्य - उत्कृष्ट स्थिति एक ही होती है। वहां नौ गमक नहीं बनते। जहां पूरे गमक नहीं बन पाते, उन्हें शून्य गमक या गमकों का टूटना माना गया है। इस पूरे प्रकरण में ८४ गमक शून्य हैं। इसलिए गमकों की संख्या २८०५ होती है ।
२८०५ गमकों का २० द्वारों के माध्यम से वर्णन किया गया है। इस समग्र वर्णन को एक शब्द में समेटकर ऋद्धि कहा गया है। बीस द्वारों के नाम
उपपात, परिमाण, संहनन, अवगाहना, संस्थान, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान-अज्ञान, योग, उपयोग, संज्ञा, कषाय, इन्द्रिय, समुद्घात, वेदना, वेद, आयु, अध्यवसाय, अनुबन्ध और काय संवेध |
बीस द्वारों में संहनन, संस्थान, संज्ञा, कषाय, इन्द्रिय, वेदना, वेद और उपयोग इन आठ द्वारों का वर्णन एक समान है। शेष बारह द्वारों में कहीं-कहीं भिन्नता रहती है । इस भिन्नता को 'नाणत्ता' के द्वारा स्पष्ट किया गया है ।
जयाचार्य ने जोड़ की रचना के साथ-साथ एक-एक प्रकरण के अलग-अलग यन्त्र बना दिए । यन्त्रों की संख्या १६० हैं । इनके द्वारा वर्णित विषय पूरी तरह से स्पष्ट हो जाता है। भगवती-जोड़ की हस्तलिखित प्रति में प्रत्येक प्रकरण के बाद उससे सम्बन्धित यन्त्र दिया गया है । यन्त्र की रचना कलात्मक तरीके से की गई है। जोड़ का सम्पादन करते समय प्रश्न सामने आया कि मुद्रण के समय यन्त्रों को कैसे रखा जाए? इस प्रश्न के परिप्रेक्ष्य में चिन्तन उभरा कि प्रत्येक प्रकरण के बाद सम्बन्धित यन्त्र रखने से मुद्रण में एकरूपता का अभाव रहेगा। बीच बीच में पृष्ठ खाली रहेंगे और अव्यवस्था होगी। इस चिन्तन के आधार पर गुरुदेव का निर्देश मिला कि सारे यन्त्रों को एक साथ परिशिष्ट में दे दिया जाए और जोड़ में उनका संकेत रहे ताकि पाठक को किसी प्रकार की असुविधा न हो ।
गुरुदेव के निर्देशानुसार काम शुरू किया। उसमें भी कठिनाई का अनुभव हुआ । मूल प्रति में सब यन्त्रों के उपपात द्वार अक्षरों में लिखे हुए हैं और शेष १८ द्वार यन्त्र के कोष्ठकों में है । उन्नीस द्वारों के बाद 'नाणत्ता' का कोष्ठक है और बीसवां द्वार
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