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कायसंवेध स्वतन्त्र यन्त्र के रूप में दिया गया है इस द्विरूपता को दूर करने के लिए हमने उपपात द्वार और कायसंवेध ( भवादेश और कालादेश) को भी मूल यन्त्र के साथ जोड़ दिया। इस प्रकार यन्त्रों के विन्यास में थोड़ा सा परिवर्तन हो गया ।
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यन्त्र बहुत सुन्दर और व्यवस्थित थे। फिर भी प्रतिलिपि करने वालों ने अक्षर विन्यास करते समय कहीं संक्षिप्त और कहीं पूर्ण रूप कर दिया। इससे यन्त्र रचना में एकरूपता नहीं हो पाई । सम्पादनकाल में एकरूपता के लिए प्रयत्न किया गया। यह काम कितना व्यवस्थित हो पाया है, इसकी समीक्षा पाठक करेंगे। इस काम में साध्वी जिनप्रभाजी ने जिस मनोयोग से समय और श्रम लगाया है, उसका उल्लेख कर मैं उनकी ध्येयनिष्ठा को कम नहीं करूंगी ।
भगवती-जोड़ के इस छठे खण्ड में २४ उद्देशक हैं। एक-एक उद्देशक में एक-एक दण्डक में जीवों की आगति के आधारगमकों का निरूपण है । एक उद्देशक को सही रूप में समझने के बाद शेष उद्देशकों का बोध सरल हो जाता है । पर इसमें एक कठिनाई और उपस्थित हो गई। आगे के अनेक स्थलों का संक्षिप्त वर्णन करके उनकी समग्र जानकारी के लिए पीछे के स्थलों का संकेत कर दिया गया । सूत्रकार ने यह प्रयोग ग्रन्थ-विस्तार के भय से किया होगा पर एक स्थल के अवबोध हेतु एक के बाद एक इस प्रकार अनेक संकेत स्थलों को देखने में पाठक उलझ जाता है। जयाचार्य ने जोड़ की रचना में भी इस संकेत प्रक्रिया का प्रयोग किया है । विस्तृत वर्णन जानने के लिए पाठक को पूरी एकाग्रता का अभ्यास करना होगा ।
भगवती-जोड़ के अन्य खण्डों की तरह प्रस्तुत खण्ड के सम्पादन में भी गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी का अनुग्रह भरा सान्निध्य बरावर उपलब्ध हुआ । यत्र तत्र आचार्य श्री महाप्रज्ञ के मार्गदर्शन से भी कार्य सुगम होता रहा। साध्वी जिनप्रभाजी ने इस खण्ड के सम्पादन में अतिरिक्त निष्ठा से काम किया । परिशिष्ट के यन्त्रों में पूरा श्रम उन्हीं का लगा है। जोड़ की पाण्डुलिपि के समानान्तर मूलपाठ और वृत्ति की पाण्डुलिपि साध्वी स्वरेखाजी ने तैयार की हमारे सामने मूलपाठ को लेकर कोई भी कठिनाई आई, मुनि हीरालालजी का सहयोग सहज भाव से उपलब्ध होता रहा । प्रूफ निरीक्षण में साध्वी विभाश्रीजी और स्वस्तिकाश्रीजी का भी श्रम लगा । गुरुजनों की कृपा और साध्वियों के सहयोग से भगवती-जोड़ जैसे विशाल ग्रन्थ का सम्पादन हो रहा है, इसकी मुझे प्रसन्नता है ।
११ जनवरी १९९६ लाडनूं, ऋषभद्वार
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-साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा
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