Book Title: Bhagavati Jod 05
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 9
________________ संपादकीय जैन आगम साहित्य में सबसे बड़ा आगम है भगवती । इसके इकतालीस शतक हैं। भाषा में पद्यमय भाष्य लिखकर राजस्थानी साहित्य की समृद्धि में अभूतपूर्व योगदान दिया। वृत्ति को भी अपनी लेखनी का विषय बनाया। संस्कृत भाषा का प्राथमिक अध्ययन होने पर समझा है, आश्चर्य का विषय है। यहां दो संभावनाएं की जा सकती हैं- • जयाचार्य की अन्तर्दृष्टि जागृत थी । • जयाचार्य को किसी दिव्यशक्ति का सहयोग प्राप्त था । ऐसे कारणों की उपस्थिति बिना इतना विशाल कार्य कोई कर सकता है, यह कल्पना भी संभव नहीं है । उनकी लिखने की शैली भी विलक्षण रही है । आगम के मूल पाठ और उसकी वृत्ति का भावानुवाद कोई भी अच्छा लेखक कर सकता है । किन्तु उसका मूलस्पर्शी पद्यानुवाद बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी दुरुह जैसा लगता है। किन्तु जयाचार्य ने इतनी सहजता और सरलता से यह काम कैसे किया ? इस जिज्ञासा को कोई समाधानसूत्र नहीं मिल पाया। जयाचार्य एक महान् साधक थे। साधुचर्या के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता थी। उसमें उनका समय नियमित रूप से लगता था । वे एक धर्मसंघ के आचार्य थे । तेरापंथ धर्मसंघ की परम्परा के अनुसार प्रशासन और नीति-निर्धारण सम्बन्धी प्रत्येक कार्य स्वयं आचार्य करते हैं। प्रवचन और जन संपर्क के कार्य भी पर्याप्त समय ले लेते हैं । जयाचार्य ध्यान की साधना में भी काफी समय लगाते थे । उनकी साहित्य साधना को देखकर अनुमान किया जा सकता है कि वे आगमों, आगमों के व्याख्या साहित्य तथा अन्य ग्रंथों का स्वाध्याय बहुत करते थे । आश्चयं तो इस बात का है कि इतने कार्यों को सम्पादित करने के लिए वे समय का नियोजन कैसे कर पाते थे । जयाचार्य ने इसकी जोड़ - राजस्थानी उन्होंने मूल आगम की तरह उसकी भी उन्होंने जिस बारीकी से तथ्यों को जयाचार्य ने वि०सं० १९१९ आश्विन कृष्णा नवमी को भगवती-जोड़ की रचना प्रारम्भ की और वि०सं० १९२४ पोष शुक्ला 'दशमी को इसे सम्पन्नता पर पहुंचा दिया । उन्होंने वि०सं० १९२० में अपने उत्तराधिकारी के रूप में मुनि मघवा को युवाचार्य पद पर नियुक्त किया । उनकी नियुक्ति के बाद प्रवचन और जन-सम्पर्क- इन दो कार्यों का दायित्व युवाचार्य को सौंप दिया । इससे आपका कार्यभार कुछ हल्का अवश्य हो गया था। फिर भी एक आचार्य को काफी समय लगाना ही होता है । धर्मसंघ की सारणा वारणा और व्यवस्था में अपना भगवती-जोड़ जैसे विशाल ग्रन्थ के निर्माण में जयाचार्य को कुल पांच वर्ष का समय लगा। उनकी निर्वाण शताब्दी का निमित्त सामने आया। भगवती-जोड़ के संपादन और प्रकाशन की योजना बनी । अब तक चार खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं। उनमें पन्द्रह शतकों का समावेश हुआ । प्रस्तुत ग्रन्थ उसका पांचवां खण्ड है । इसमें सोलह से तेबीस तक आठ शतक आ गए हैं । प्रत्येक शतक में विविध विषयों का विवेचन है । भगवती सूत्र में कितने विषयों का स्पर्श किया गया है, यह इसका विषयानुक्रम देखने से ही ज्ञात हो जाता है । सोलहवां शतक सोलहवें शतक में चौदह उद्देश है। शकों में वर्णित विषयों को जयाचार्य ने पन्द्रदानों में गुम्फित किया है। प्रथम उद्देशक में अधिकरणी के अभिघात से वायुकाय की उत्पत्ति और उसकी सचेतनता अचेतनता के बारे में वृत्तिकार का अभिमत स्पष्ट किया गया है। अग्निकाय के साथ वायुकाय की स्थिति का उल्लेख है। अग्निकाय से तपे हुए लोहे को संडासे से निकालने या डालने या पुरुष को लगने वाली क्रियाओं का वर्णन है। जीव अधिकरणी है या अधिकरण ? यह आत्माधिकरणी है ? पराधिकरणी है ? वाले अथवा उभयाधिकरणी है ? वह अधिकरणी क्यों है ? शरीर, इन्द्रिय और योग की संरचना करने वाला जीव अधिकरणी है या अधिकरण ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान प्रथम उद्देशक में उपलब्ध है । दूसरे उद्देशक में गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से जरा और शोक के संबन्ध में प्रश्न पूछे । भगवान् के दर्शन करने प्रथम स्वर्ग के अधिपति शक्रेन्द्र का आगमन हुआ । शक्रेन्द्र ने अवग्रह के बारे में कुछ प्रश्न पूछे । भगवान् ने देवेन्द्र, चक्रवर्ती, गाथापति, सागारिक और साधर्मिक ये पांच प्रकार के अवग्रह् बताए । शक्रेन्द्र लौट गया तो गणधर गौतम ने शक्रेन्द्र को विषय बनाकर कुछ जिज्ञासाएं प्रस्तुत कीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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