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(१०)
द्विप्रदेशी पुद्गल-स्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशिक पुद्गल स्कन्ध के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से जितने भंग बनते हैं, उन सबके यन्त्र बनाना उनकी एकाग्रता की विशिष्ट साधना का फलित है । उस भंग-संयोजना का प्रतिलिपि से मिलान करने में भी हमें बहुत एकाग्रता रखनी पड़ी। इसके आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि बिना गहरी एकाग्रता के भंग-संरचना नहीं हो पाती। यह पूरा प्रसंग आम पाठक की रुचि के अनुरूप न भी हो, पर इसका महत्त्व किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। कम्प्यूटर के इस युग में यह लेखा-जोखा मानव-मस्तिष्क को वरीयता देने वाला है। प्रस्तुत उद्देशक के अन्त में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से परमाणु का विवेचन किया गया है।
छठे उद्देशक में पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वायुकायिक जीवों के आहार आदि का वर्णन है । सातवें उद्देशक में जीवप्रयोग बंध, अनन्तर बंध और परम्पर बंध की चर्चा में चौबीस दण्डक के जीवों से संबंधित बन्ध का निरूपण है। आठवें उद्देशक में कर्मभूमि, अकर्मभूमि, पंच महाव्रत रूप धर्म, चतुर्याम रूप धर्म, तीर्थंकर आदि के विवरण में तीर्थंकरों के विरहकाल में कालिक श्रुत के विच्छेद-अविच्छेद की चर्चा है । इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए गणधर गौतम ने एक प्रश्न उपस्थित किया है-'भंते ! इस अवसर्पिणी काल में आपका तीर्थ कितने समय तक रहेगा?' भगवान् ने कहा -'गौतम ! मेरा तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक रहेगा।' जयाचार्य ने इस प्रसंग की अनेक आगमों और शब्दकोशों के प्रमाण देकर समीक्षा की है । तीर्थ शब्द का अर्थ साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ भी होता है और तीर्थंकरों के प्रवचन (आगम) को भी तीर्थ कहा जाता है । जयाचार्य ने पूरी समीक्षा का सार प्रस्तुत करते हुए लिखा है
• वर्ष इकवीस हजार, तीर्थ रहिस्यै न्याय तसु ।
एम संभवै सार, फुन बहुश्रुत कहै तेह सत्य ॥ ० वर्ष इकवीस हजार, तीर्थ रहिस्य इम को।
पिण चिहु तीर्थ सार रहिस्य इम आख्यो नथी॥ ० ते माट अवधार, तीर्थ प्रवचन सूत्र छ।
___ कद ही संघ आधार, द्रयलिंगी आधार कद ॥ इस शतक के नवमें उद्देशक में जंघाचारण और विद्याचारण मुनियों और उनकी गति के बारे में बताया गया है। इस प्रसंग में भी जयाचार्य ने चैत्य शब्द को अपनी समीक्षा का विषय बनाया है। दसवें उद्देशक में सोपक्रम और निरुपक्रम आयुष्य के संदर्भ में चौबीस दण्डकों की चर्चा है। इसी क्रम में कतिसंचित आदि तथा षट्कसमजित आदि का विवेचन किया गया है। तीन शतक
इक्कीसवां, बाईसवां और तेईसवां--ये तीन शतक वनस्पति विज्ञान के भंडार हैं। अत्यन्त संक्षेप में वनस्पति की जितनी प्रजातियों का यहां विवेचन किया गया है, पढ़कर आश्चर्य होता है । सामान्य व्यक्ति के लिए ऐसा विवेचन समझना भी कठिन है। वनस्पति के जीव एक समय में एक साथ कितनी संख्या में उत्पन्न होते हैं। वे कहां से आकर उत्पन्न होते हैं। उनके शरीर की अवगाहना कितनी हैं । उनके कर्म-बन्धन की प्रक्रिया क्या है। उनमें लेश्या, दृष्टि आदि कितने होते हैं। उनकी स्थिति कितनी है आदि अनेक प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर दिए हैं । विस्तृत जानकारी के लिए पन्नवणा सूत्र और भगवती सूत्र के ग्यारहवें शतक का संकेत दिया है। इक्कीसवें शतक में आठ वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग के दस उद्देशक हैं । प्रतिपाद्य विषयों की सूचना देते हुए लिखा गया है
सालि कल अयसि वंसे इक्खू दब्भे य अब्भ तुलसी य ।
अट्ठए दस वग्गा असीति पुण होंति उद्देसा ॥ बाईसवें शतक में छह वर्ग हैं। प्रत्येक वर्ग के दस-दस उद्देशक हैं । वर्गों और उद्देशकों की संकेत गाथा यह है
तालेगट्ठिय बहुबीयगा य गुच्छा य गुम्म वल्ली य ।
छद्दस बग्गा एए, सट्टि पुण होंति उद्देसा ॥ तेईसवें शतक में पांच वर्ग हैं । प्रत्येक वर्ग के दस-दस उद्देशक हैं । शतक की प्रारम्भिक रचना इस प्रकार है
आलुय लोही अवए पाढा तह मासवपिण-वल्लि य।
पंचेते दस वग्गा, पन्नासं होंति उद्देसा॥ उक्त तीनों शतकों के आधार पर की गई जोड़ पढ़कर ऐसा लगता है कि जयाचार्य की भाषान्तर क्षमता अप्रतिम थी। वनस्पति जगत् के विचित्र-विचित्र शब्दों को उन्होंने प्राकृत भाषा से राजस्थानी में घड़ दिया। यह पूरा विवेचन वनस्पति जीववैज्ञानिकों के लिए पठनीय है।
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