Book Title: Bhagavati Jod 05
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 7
________________ प्रकाशकीय 'भगवती-जोड़' का प्रथम खण्ड जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के अवसर पर 'जय वाङमय' के चतुर्दश ग्रन्थ के रूप में सन् १९८१ में प्रकाशित हुआ था। इसका दूसरा खंड सन् १९८६ में प्रकाशित हुआ, तीसरा खण्ड सन् १९९० में तथा चतुर्थ १९९४ में प्रकाशित हुआ । अब उसी ग्रन्थ का पंचम खण्ड पाठकों के हाथ में सौंपते हुए अति हर्ष का अनुभव हो रहा है। प्रथम खण्ड में उक्त ग्रन्थ के चार शतक समाहित हैं। द्वितीय खंड में पांचवें से लेकर आठवें शतक, तृतीय खंड में नौवें से लेकर ग्यारहवें शतक तक तथा चतुर्थ खण्ड में बारहवें से पन्द्रहवें तक चार शतक एवं एक परिशिष्ट 'गोशाला री चौपई' संगहीत है । प्रस्तुत खण्ड में सोलहवें से तेइसवें शतक तक की सामग्री समाहित है। साहित्य की बहुविद्य दिशाओं में आगम ग्रन्थों पर श्रीमज्जयाचार्य ने जो कार्य किया है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । प्राकृत आगमों को राजस्थानी जनता के लिए सुबोध करने की दृष्टि से उन्होंने उनका राजस्थानी पद्यानुवाद किया जो सुमधुर रागनियों में ग्रथित है। प्रथम आचारांग की जोड़, उत्तराध्ययन की जोड़, अनुयोगद्वार की जोड़, पन्नवणा की जोड़, संजया की जोड़, नियंठा की जोड़-ये कृतियां उक्त दिशा में जयाचार्य के विस्तृत कार्य की परिचायक है। "भगवई" अंग ग्रन्थों में सबसे विशाल है । विषयों की दृष्टि से यह एक महान् उदधि है । जयाचार्य ने इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आगम-ग्रन्थ का भी राजस्थानी भाषा में गीतिकाबद्ध पद्यानुवाद किया। यह राजस्थानी भाषा का सबसे बड़ा ग्रन्थ माना गया है। इसमें मूल के साथ टीका ग्रन्थों का भी अनुवाद है और वार्तिक के रूप में अपने मंतव्यों को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है। इसमें विभिन्न लय ग्रथित ५०१ ढालें तथा कुछ अन्तर ढालें हैं। ४१ ढालें केवल दोहों में है। ग्रन्थ में ३२९ रागनियां प्रयुक्त इसमें ४९९३ दोहे, २२२५४ गाथाएं, ६५५२ सोरठे, ४३१ छंद, १८४८ प्राकृत, संस्कृत पद्य तथा ७४४९ पद्य-परिमाण, ११९० गीतिकाएं, ९३२९ पद्य-परिमाण, ४०४ यंत्रचित्र आदि हैं। इसका अनुष्टुप् पद्य-परिमाण ग्रन्थाग्र ६०९०६ है। प्रस्तुत खण्ड में मूल राजस्थानी कृति के साथ संबंधित आगम पाठ और टीका गाथाओं के सामने दी गई है। इससे पाठकों को समझने की सुविद्या के साथ-साथ मूल कृति के विशेष मंतव्य की जानकारी भी हो सकेगी। इस ग्रन्थ का कार्य गणाधिपति श्री तुलसी के तत्त्वावधान में हुआ है और साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने उनका पूरा-पूरा हाथ बंटाया है। उनका श्रम पग-पग पर अनुभूत होता-सा दृष्टिगोचर होता है। इस ग्रन्थ का मुद्रण कार्य जैन विश्व भारती के निजी मुद्रणालय में सम्पन्न हुआ है, जिसकी स्थापना जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में हुई थी। श्रीचन्द रामपुरिया Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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