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उपस्थित रहता है। उन्होंने कहा है-'निम्रन्थो ! तमने पूर्व (जन्म) मे पापकर्म किये हैं, उनकी इस घोर दुश्चर तपस्या से निर्जरा कर डालो। मन, वचन और काय की संवृत्तिसे ( नये) पाप नहीं बंधते और तपस्या से पुराने पापों का व्यय हो जाता है। इस प्रकार नये पापों के रुक जाने से कर्मों का क्षय होता है, कर्म क्षय से दुक्खक्षय होता है, दुक्खक्षय से वेदनाक्षय और वेदनाक्षयसे सर्व दुःखो की निर्जरा हो जाती है । इस पर बुद्ध कहते हैं कि 'यह कथन हमारे लिये रुचिकर प्रतीत होता है और हमारे मन को ठीक ऊंचता है।" __ शाक्यपुत्र गौतम बुद्ध के उक्त प्रवचन से स्पष्ट है कि उनके समय मे निम्रन्थ ज्ञातपुत्र महावीर वर्द्धमान एक महान् तत्त्ववेत्ता रूपमे प्रसिद्ध थे -- गौतम बद्ध से वह भिन्न थे। उस समय के लोग उनको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी एवं अशेष-अनन्तज्ञान के अधिकारी मानते थे । अतः यह शंका करना ही व्यर्थ है कि भ० महावीर वर्द्धमान नामका कोई स्वाधीन महापुरुष हुआ ही नहीं। जब भ० महावीर ने पावापुर से निवाएपद पाया, तो उससे ठीक चौरासी वर्षों के पश्चात् राजस्थान के अन्तर्गत मज्झिमका नामक नगरी में उनके भक्तों ने एक भवन का निर्माण किया । उधर तेरापुर, हाथीगुफा आदि स्थानों की प्राचीन जिनमूर्तियों में भ. महावीर की मूर्ति भी मिलती है ।२ मथुरा के कंकाली टीला से उपलब्ध कुशानकालीन मूर्ति भी इन अंतिम तीर्थकर की मिली है।३ बौद्धों के 'मिलिन्दपण्ह' ग्रन्थमें स्पष्ट
१. 'वीराय भगवते चतुरासी निवस्से सालामालिणीये रएिणविन्द्र __ मज्झिमिके 1-जैनमिन वर्ष १२ अंक ११ पृ. १६२ २, संह०, भा० ३ खंद ५ पृ० १५-१८ 3. Epigraphic Indica, II, 321.