Book Title: Balavbodh Mokshmala
Author(s): Mansukhlal Ravjibhai Mehta
Publisher: Mansukhlal Ravjibhai Mehta

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ ४. ६. ७ ८. ९. १३ आत्मस्थिरता त्रण संक्षिप्त योगनी, मुख्यपणे तो वर्ते देहपर्यंत जो; घोर परिषह के उपसर्गभये करी, आवी शके नहीं ते स्थिरतानो अंत जो. अपूर्व ० संयमना हेतुथी योगप्रवर्त्तना, स्वरुपलक्षे जिनआज्ञा नाधीन जो; ते पण क्षण क्षण घटती जाती स्थितिमां, अंते थाये निजस्वरुपमा लीन जो. पंच विषयमां रागद्वेष विरहितता, पंच प्रमादे न मळे मननो क्षोभ जो; द्रव्य, क्षेत्र ने काळ भाव प्रतिबंधवण, विचर उदद्याधीन पण वीतलोभ जो. क्रोधप्रत्ये तो वर्ते क्रोधस्वभावता, मान प्रत्ये तो दीनपणानुं मान जो; माया प्रत्ये माया साक्षी भावनी, लोभप्रये नहीं लोभ समान जो. बहु उपसर्गकर्त्ता प्रत्ये पण क्रोध नहीं, वंदे चक्रि तथापि न मळे मान जो; देह जाय पण माया थाय न रोममां, लोभ नहीं छो प्रबळ सिद्धि निदान जो. अपूर्व ० नग्नभाव, मुंडभाव सहअस्नानता, अदंतधावन आदि परम प्रसिद्ध जो; केश, रोम, नख, के अंगे शृंगार नहीं, द्रव्यभाव सयंममय निग्रंथ सिद्ध जो. १०. शत्रु मित्रप्रत्ये वर्ते समदर्शिता, मान अमाने वर्ते तेज स्वभाव जो, अपूर्व ० अपूर्व ο O अपूर्व ० अपूर्व ०

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 188