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શ્રામવિજયાનંદષ્ટક-અને ગુરૂ સ્તુત. देवेश का आदेश ज्यों है देवगण पर चल रहा,
त्यों ज्ञान बल से विवश आत्माराम के भूतल रहा ॥३॥ संसार की निःसारता का सार जिन को था मिला,
परलोक के आलोक से था हृत्कमल जिनका खिला । संसृति रही दासी, उदासी किन्तु उस से वे रहे,
निःस्वार्थ हो परमार्थ-रत मिलते न वे किस से रहे ? ॥४॥ मिथ्या विमत का जाल उन पर पड गया कुछ काल था,
मानो झुमणि के सामने आकर अडा धन-जाल था। घनजाल वह पर शास्त्र परिशीलन-पवन से फट गया,
। भ्रम-नम हुअा था म्वप्न में मानो जगे पर हट गया ।। वे सत्यता के शस्त्र से सञ्जित सदा रहते रहे,
सच्छास्त्र जो कहता उसे करते रहे कहते रहे। विद्वषियों के विघ्न से वे ऊबते मन में न थे,
कामादि उनके स्वप्न में भी व्यापते मन में न थे ॥६॥ नरकेशरी के सम विपक्षी-गण उन्हें था लेखता,
ज्यों मूर्य को नक्षत्र-गण है गुप्त होकर देखता। कोई विवादी वाद में उनके न सम्मुख था रुका,
उनके कमलवञ्चरण पर किसका न मस्तक था झुका ॥७॥ गुर-देव-धर्मों के निरूपण रूप का करते हुए,
जिज्ञासुओं के हृदय के संदेह को हरते हुए । लीला यहाँ की पूर्ण जैनाचार्य ने करदी यहीं,
उनकी सदा ऋणिया रहेगी भव्य भारत की मही ॥८॥ ज्येष्ठ शुक्ला ८, सं० २४५०
[ रामचरित उपाध्याय. (१० जून १९३४)
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