Book Title: Atma ke Maulik Guno ki Vikas Prakriya ke Nirnayak Gunsthan Author(s): Ganeshmuni Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 4
________________ 8. विचारणा-वैराग्य-अभ्यास के कारण, से लेकर 'स्वरूप' की पराकाष्ठा प्राप्त कर लेने तक सदाचार में प्रवृत्ति होना। की अवस्था का वर्णन, बौद्ध ग्रंथों में, निम्नलिखित १०. तनुमानसा-'शुभेच्छा' और 'विचारणा' पाँच विभागों में विभाजित है। के कारण इन्द्रिय-विषयों के प्रति विरक्ति में वृद्धि १-'धर्मानुसारी' या श्रद्धानुसारी' वह कहहोना। लाता है, जो निर्वाण-मार्ग-मोक्षमार्ग का अभिमुख ११. स्वत्वापत्ति –'सत्य' और 'शुद्ध' आत्मा हो, किन्तु, उसे अभी निर्वाण प्राप्त न हुआ हो। में स्थिर होना । २-सोतापन्न- मोक्षमार्ग को प्राप्त किये हुई १२. असंसक्ति-वैराग्य के परिपाक से चित्त आत्माओं के विकास की न्यूनाधिकता के कारण SNI में निरतिशय-आनन्द का प्रादुर्भाव होना। 'सोतापन्न' आदि चार विभाग हैं। जो आत्मा, १३. पदार्थाभाविनी-बाह्य और आभ्यन्तर अविनिपात, धर्मनियत और संबोधि-परायण हो, सभी पदार्थों पर से इच्छाएं नष्ट हो जाना। उसे 'सोतापन्न' कहते हैं। 'सोतापन्न' आत्मा, सातवें १४. तूर्यगा-भेदभाव का अभाव हो जाने से भव में अवश्य ही निर्वाण प्राप्त करती है। C एकमात्र स्वभावनिष्ठा में स्थिर हो जाना। यह ३-सकदागामी-जो आत्मा, एक ही बार में, 'जीवन्मुक्त' जैसी अवस्था होती है । इस स्थिति के इस लोक में जन्म ग्रहण करके, मोक्ष जाने वाली बाद की स्थिति, 'तूर्यातीत' अवस्था-'विदेहमुक्ति' आत्मा हो, उसे 'सकदागामी' कहते हैं। E अवस्था होती है। ४-अनागामी-जो आत्मा, इस लोक में उक्त चौदह अवस्थाओं में प्रारम्भ की सात जन्म ग्रहण करके, ब्रह्मलोक से सीधे मोक्ष जाने भूमिकाएँ, अज्ञान की प्रबलता पर आधारित हैं। वाली आत्मा हो। इसलिए, इन्हें आत्मा के मौलिक गुणों के अविकास ५-अरहा-जो सम्पूर्ण आस्रवों का क्षय करके क्रम में गिना जाता है। जबकि, बाद की सातों कृतकृत्य हो जाती है, ऐसी आत्मा को 'अरहा' भूमिकाओं में 'ज्ञान' की वृद्धि होती रहती है। इस- कहते हैं । इसके बाद निर्वाण की स्थिति बनती है। ५ लिए इन्हें 'विकास-क्रम' में गिना जाता है। जैन- उक्त पाँचों प्रकार की आत्माएँ, उत्तरोत्तर, परिभाषा के अनुसार इन्हें क्रमशः 'मिथ्यात्व' एवं अल्पश्रम से 'मार'-काम के वेग पर विजय प्राप्त 'सम्यक्त्व' अवस्थाओं का सूचक माना गया है। करने वाली होती हैं । 'सोतापन्न' आदि उक्त चार बौद्धदर्शनसम्मत अवस्थाएँ-बौद्धदर्शन, यद्यपि अवस्थाओं का विचार, जैनदर्शनसम्मत चौथे गुणक्षणिकवादी है। फिर भी, उसमें आत्मा की स्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के विचारों 'संसार' और 'मोक्ष' अवस्थाएँ मानी गई हैं। अत- मिलता-जुलता है, जो, गुणस्थानों से वर्णन से स्पष्ट एव उसमें भी आध्यात्मिक-विकास वर्णन का हो जायेगा। होना स्वाभाविक है। 'स्वरूपोन्मुख' होने की स्थिति बौद्ध ग्रंथों में दश-संयोजनाएं-बंधन वर्णित हैं। के इसी को जैनशास्त्रों में 'मार्गानुसारी' कहा है और उसके पैतीस गुण बताये गए हैं। दृष्टव्य-हेमचंद्राचार्यकृत 'योगशास्त्र-प्रकाश-१ जैनशास्त्रों में 'संयोजना' शब्द का प्रयोग, अनन्त संसार को बांधने वाली 'अनन्तानुबंधी कषाय' के लिए किया हैं। इसी प्रकार बौद्धग्रन्थों में भी संयोजना का अर्थ 'बन्धन' लिया गया है। उसके दस नाम इस प्रकार हैं सक्कायदिछि, विचिकच्छा, सीलब्बतपराभास, कामणा, पट्टीघ, रूपराग, अल्पराग, मान, उद्धच्च और __अविज्जा । -मज्झिमनिकाय (मराठी रूपान्तर) पृष्ठ-१५६, (टिप्पण) २५२ तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन - %3E 5 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 5.0 Jain Education International HoraDrivatespersonalese Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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