Book Title: Atma ke Maulik Guno ki Vikas Prakriya ke Nirnayak Gunsthan Author(s): Ganeshmuni Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 3
________________ वाशिष्ठ' और पातंजल योगसूत्र' में भी बतलाया गया है । जैनशास्त्रों में 'मिथ्यात्व' का फल 'संसार बुद्धि' और 'दुःख रूप' में वर्णित है, यही बात, 'योगवाशिष्ठ' में अज्ञान के फलरूप में बतलाई गई है 14 जैन शास्त्रों में 'मोह' को बंध / संसार का हेतु माना गया है तो, यही बात, प्रकारान्तर से योगवाशिष्ठ में भी कही गई है ।" जैनशास्त्रों में 'ग्रन्थिभेद' का जैसा वर्णन है, वैसा ही वर्णन, 'योग वाशिष्ठ' में भी है ।" योगवाशिष्ठ में 'सम्यग्ज्ञान' का जो लक्षण बतलाया गया है, वह जैन शास्त्रों के अनुरूप है । जैन शास्त्रों में 'सम्यग्दर्शन' की प्राप्ति, स्वभाव और बाह्य निमित्त दो प्रकार से बतलाई गयी है । योगवाशिष्ठ में 'ज्ञान प्राप्ति' का, वैसा हो क्रम सूचित किया गया है । योगवाशिष्ठ में प्रतिपादित चौदह भूमिकाएँ" ये हैं - (१) 'अज्ञान' की भूमिकाएँ- बीज जागृत जागृत, महाजागृत, जागृत-स्वप्न, स्वप्न, स्वप्नजागृत, और सुषुप्तक । (२) 'ज्ञान' की भूमिकाएँशुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थाभाविनी, और तूर्यगा । इनका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित प्रकार है १ यस्य ज्ञानात्मनो ज्ञस्य देह एवात्मभावना | उदितेति रुषैवाक्ष रिपवोऽभिभवन्ति तम् ॥ - योगवाशिष्ठ-निर्वाणप्रकरण पूर्वा० स०-६ २ अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या | - पातञ्जलयोगसूत्र - साधनापाद - ५ १३ विकल्पचषकैरात्मा पीतमोहासवो ह्ययम् । भवोच्चतालमुत्ताल प्रपञ्चमधिष्ठिति ॥ - ज्ञानसार-मोहाष्टक ४ अज्ञानात्प्रसूता यस्माज्जगत्पर्णपरम्पराः । यस्मिस्तिष्ठन्ति राजन्ते विसन्ति विलसन्ति च ।। — योगवाशिष्ठ- निर्वाण प्रकरण. स०-६ ५ अविद्या संसृतिबंधो माया मोहो महत्तमः । कन्पितानीति नामानि यस्या: सकल वेदिभिः ॥ - योगवाशिष्ठ - उत्पत्तिप्रकरण-स०-१/२० तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन Jain Education International १. बीज- जागृत - इस भूमिका में, 'अहं' बुद्धि की जागृति तो नहीं होती, किन्तु जागृति की योग्यता, बीज रूप में पायी जाती है । २. जागृत - इस भूमिका में, अहं बुद्धि, अल्पांश में जागृत होती है । ३. महाजागृत - इसमें 'अहं बुद्धि' विशेष रूप से जागृत - 'पुष्ट' होती है । यह भूमिका, मनुष्य / देवसमूह में मानी जा सकती है । ४. जागृत-स्वप्न - इस भूमिका में, जागते हुए भी भ्रम का समावेश होता है । जैसे, एक चन्द्र के बदले दो चन्द्र दिखाई देना, सीपी में चाँदी का भ्रम होना । ५. स्वप्न - निद्रावस्था में आये स्वप्न का, जागने के पश्चात् भी भान होना । ६. स्वप्न जागृत- वर्षों तक प्रारम्भ रहे हुए स्वप्न का इसमें समावेश होता है। शरीरपात हो जाने पर भी इसकी परम्परा चलती रहती है । ७. सुषुप्तक- प्रगाढ़ - निद्रा जैसी अवस्था | इसमें 'जड़' जैसी स्थिति हो जाती है, और कर्म, मात्र वासना रूप में रहे हुए होते हैं । ८. शुभेच्छा - आत्मावलोकन की वैराग्ययुक्त इच्छा । ६ ज्ञप्तिहि ग्रन्थिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता । मृगतृष्णाम्बुबुद्धया दिशन्ति मात्रात्मकस्वत्वसौ ॥ वही, उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग - ११८ / २३ अनाद्यन्तावभासात्मा परमात्मेह विद्यते । इत्ये कोनिश्चयः स्फारः सम्यग्ज्ञानं विदुर्बुधः ॥ वही - उपशमप्रकरण, सर्ग - ७६ / २ अ. तन्निसर्गादधिगमाद्वा-त्त्वार्थ सूत्र - अध्याय - १/३ ब. एकस्तावद्गुरुप्रोक्तादनुष्ठानाच्छन्नं शनैः । जन्मना जन्मभिर्वापि सिद्धिदः समुदाहृतः ॥ द्वितीयास्त्वात्मनैवाशु किंचिद्व्युत्पन्नचेतसा । भवति ज्ञानसं प्राप्तिराकाशफलपातवत् ॥ -वही - उपशमप्रकरण, सर्ग - ७/२, ४ ६ वही - उत्पत्तिप्रकरण - सर्ग - ११७/२, ११, २४ तथा सर्ग ११८/५ - १५ २५१ ७ द साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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