Book Title: Atma ke Maulik Guno ki Vikas Prakriya ke Nirnayak Gunsthan Author(s): Ganeshmuni Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 1
________________ 'संसारी' जीवों का वर्गीकरण -'जीव' अनन्त हैं। इनमें से जो जीव, पुनः-पुनः जन्म-मरणरूप में संसरण करते रहते हैं, उन्हें हम कि 'संसारी' जीव कहते हैं। किन्तु जो जीव सदा के लिए, संसरण से | मुक्ति पा चुके हैं, वे 'मुक्त' जीव कहलाते हैं । मुक्त-जीव 'अशरीरी' हैं। ॐ इनमें भावात्मक-परिणति की अपेक्षा से कोई भेद/अन्तर नहीं है । ये सभी सर्वात्मना ज्ञान, दर्शन, सुख-आदि अनन्त-स्वात्मगुणों से परिपूर्ण || हैं, निजानन्द-रस-लीन हैं। लेकिन, संसारी जीवों में अनन्त-प्रकार की विभिन्नताएँ देखी जाती हैं । जितने जीव, उतनी ही विभिन्नताएँ उनमें 2 रहती हैं। इनमें 'शारीरिक'/'ऐन्द्रियिक' विभिन्नताएँ जितनी प्रकार आत्मा के मौलिक की हैं, उनसे भी अनन्त गुणी अधिक विभिन्नताएँ 'आन्तरिक' होती हैं। फिर भी, जन सामान्य को सुगमता से बोध कराने के लिए, 'संसारी ) जीवों का वर्गीकरण अध्यात्मविज्ञानियों ने निम्नलिखित आधारों पर गुणों की विकास किया है :प्रक्रिया के निर्णायक : १. बाह्य/शारीरिक विभिन्नताएँ, २. शारीरिक/आन्तरिक-भावों को मिश्रित अवस्थाएँ, गणस्थान ३. मात्र आन्तरिक भावों की शुद्धिजन्य उत्क्रान्ति, अथवा ) आन्तरिक भावों की अशुद्धिजन्य अपक्रान्ति । उक्त आधारों पर किये गये वर्गीकरण को हम शास्त्रीय परिभाषा में, क्रमशः 'जीवस्थान' 'मार्गणास्थान' और 'गुणस्थान' कहते हैं । ये || तीनों-वर्ग, उत्तरोत्तर सूक्ष्मता के बोधक हैं। प्रस्तुत लेख में, हम सिर्फ तृतीय-वर्ग 'गुणस्थान' की दृष्टि से, संसारी-जीवों की स्थिति, 0 श्री गणेश मुनि शास्त्री उसके मौलिक गुणों को विकास प्रक्रिया की चर्चा करेंगे। (सुप्रसिद्ध साहित्यकार) 'संसार' और 'मुक्ति' के कारण-जैनदर्शन की तरह विश्व केका सभी चिन्तकों ने, राग-द्वष को संसार के कारण रूप में माना है । क्योंकि, मानसिक-विकार, या तो 'राग' (आसक्ति) रूप होता है, या फिर 'द्वष' (ताप) रूप । यह अनुभव-सिद्ध भी है कि साधारण-जनों की प्रकृति, ऊपर से चाहे कैसी भी क्यों न दिखे, वह या तो रागमूलक होती है, या फिर द्वषमूलक होती है। यही प्रवृत्ति, विभिन्न वासनाओं का कारण बनती है । प्राणी, जाने या न जाने, किन्तु उसकी वासनात्मक-प्रवृत्ति के मूल में, ये 'राग' और 'ष' ही होते हैं । जैसे, मकड़ी, अपनी प्रवृत्ति से स्व-निर्मित जाले में फंसती है, उसी प्रकार प्राणी भी, अपने ही राग द्वेष से अज्ञान, मिथ्याज्ञान और कदाचरण का ऐसा ताना-बाना रचता है, कि संसार में फंसता चला जाता है। न्याय-वैशेषिक-दर्शन में 'मिथ्याज्ञान' को, योगदर्शन में 'प्रकृति-पुरुष तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन २४६ 30 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private Personal use only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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