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'संसारी' जीवों का वर्गीकरण -'जीव' अनन्त हैं। इनमें से जो जीव, पुनः-पुनः जन्म-मरणरूप में संसरण करते रहते हैं, उन्हें हम कि 'संसारी' जीव कहते हैं। किन्तु जो जीव सदा के लिए, संसरण से | मुक्ति पा चुके हैं, वे 'मुक्त' जीव कहलाते हैं । मुक्त-जीव 'अशरीरी' हैं। ॐ इनमें भावात्मक-परिणति की अपेक्षा से कोई भेद/अन्तर नहीं है । ये सभी सर्वात्मना ज्ञान, दर्शन, सुख-आदि अनन्त-स्वात्मगुणों से परिपूर्ण || हैं, निजानन्द-रस-लीन हैं। लेकिन, संसारी जीवों में अनन्त-प्रकार की विभिन्नताएँ देखी जाती हैं । जितने जीव, उतनी ही विभिन्नताएँ उनमें 2
रहती हैं। इनमें 'शारीरिक'/'ऐन्द्रियिक' विभिन्नताएँ जितनी प्रकार आत्मा के मौलिक
की हैं, उनसे भी अनन्त गुणी अधिक विभिन्नताएँ 'आन्तरिक' होती हैं। फिर भी, जन सामान्य को सुगमता से बोध कराने के लिए, 'संसारी )
जीवों का वर्गीकरण अध्यात्मविज्ञानियों ने निम्नलिखित आधारों पर गुणों की विकास
किया है :प्रक्रिया के निर्णायक : १. बाह्य/शारीरिक विभिन्नताएँ,
२. शारीरिक/आन्तरिक-भावों को मिश्रित अवस्थाएँ, गणस्थान
३. मात्र आन्तरिक भावों की शुद्धिजन्य उत्क्रान्ति,
अथवा
)
आन्तरिक भावों की अशुद्धिजन्य अपक्रान्ति । उक्त आधारों पर किये गये वर्गीकरण को हम शास्त्रीय परिभाषा में, क्रमशः 'जीवस्थान' 'मार्गणास्थान' और 'गुणस्थान' कहते हैं । ये || तीनों-वर्ग, उत्तरोत्तर सूक्ष्मता के बोधक हैं। प्रस्तुत लेख में, हम
सिर्फ तृतीय-वर्ग 'गुणस्थान' की दृष्टि से, संसारी-जीवों की स्थिति, 0 श्री गणेश मुनि शास्त्री
उसके मौलिक गुणों को विकास प्रक्रिया की चर्चा करेंगे। (सुप्रसिद्ध साहित्यकार) 'संसार' और 'मुक्ति' के कारण-जैनदर्शन की तरह विश्व केका
सभी चिन्तकों ने, राग-द्वष को संसार के कारण रूप में माना है । क्योंकि, मानसिक-विकार, या तो 'राग' (आसक्ति) रूप होता है, या फिर 'द्वष' (ताप) रूप । यह अनुभव-सिद्ध भी है कि साधारण-जनों की प्रकृति, ऊपर से चाहे कैसी भी क्यों न दिखे, वह या तो रागमूलक होती है, या फिर द्वषमूलक होती है। यही प्रवृत्ति, विभिन्न वासनाओं का कारण बनती है । प्राणी, जाने या न जाने, किन्तु उसकी वासनात्मक-प्रवृत्ति के मूल में, ये 'राग' और 'ष' ही होते हैं । जैसे, मकड़ी, अपनी प्रवृत्ति से स्व-निर्मित जाले में फंसती है, उसी प्रकार प्राणी भी, अपने ही राग द्वेष से अज्ञान, मिथ्याज्ञान और कदाचरण का ऐसा ताना-बाना रचता है, कि संसार में फंसता चला जाता है।
न्याय-वैशेषिक-दर्शन में 'मिथ्याज्ञान' को, योगदर्शन में 'प्रकृति-पुरुष तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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के अभेद' को, और वेदान्त आदि दर्शनों में 'अविद्या' को, संसार के कारण रूप में बतलाया गया है । ये सभी शाब्दिक भेद से राग-द्वेष के ही अपर नाम हैं । इन राग-द्वेषों के उन्मूलक साधन ही मोक्ष के कारण हैं ।
इसी दृष्टि से, जैन- शास्त्रों में मोक्ष प्राप्ति के तीन साधन ( समुदित ) बताये हैं- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । कहीं-कहीं 'ज्ञान' और 'क्रिया' को मोक्ष का साधन कहा है । ऐसे स्थानों पर, 'दर्शन' को 'ज्ञान' का विशेषण समझकर उसे ज्ञान में गर्भित कर लेते हैं। इसी बात को वैदिक - दर्शनों में 'कर्म', 'ज्ञान', 'योग' और 'भक्ति' इन चार रूपों में कहा है। लेकिन, संक्षेप और विस्तार अथवा शब्द - भिन्नता के अतिरिक्त आशय में अन्तर नहीं है । जैनदर्शन में जिसे 'सम्यक्चारित्र' कहा है, उसमें 'कर्म' और 'योग' दोनों का समावेश हो जाता है। क्योंकि 'कर्म' और 'योग' के जो कार्य हैं, उन 'मनोनिग्रह', 'इन्द्रिय जय', 'चित्त शुद्धि' एवं 'समभाव' का तथा उनके लिए किये जाने वाले उपायों का भी, 'सम्यक्चारित्र' के क्रिया रूप होने से, उसमें समावेश हो जाता है । 'मनोनिग्रह' 'इन्द्रिय जय' आदि 'कर्ममार्ग' है । 'चित्त शुद्धि' और उसके लिए की जाने वाली सत्प्रवृत्ति 'योगमार्ग' है । सम्यग्दर्शन 'भक्तिमार्ग' है । क्योंकि 'भक्ति' में 'श्रद्धा' का अंश प्रधान है और 'सम्यग् - दर्शन' श्रद्धारूप ही है । सम्यग्ज्ञान 'ज्ञानमार्ग' रूप ही है ।
इस प्रकार से, सभी दर्शनों में, मुक्ति-कारणों के प्रति एकरूपता है । इन कारणों का अभ्यास / आचरण करने से जीव 'मुक्त' होता है ।
गुणस्थान / भूमिका / अवस्था - जिन आस्तिक दर्शनों में संसार और मुक्ति के कारणों के प्रति मतैक्य है, उन दर्शनों में आत्मा, उसका पुनर्जन्म, उसकी विकासशीलता तथा मोक्षयोग्यता के साथ
किसी न किसी रूप में, आत्मा के क्रमिक विकास का विचार पाया जाना स्वाभाविक है । क्योंकि विकास की प्रक्रिया, उत्तरोत्तर अनुक्रम से वृद्धिंगत होती है । सुदीर्घ मार्ग को क्रमिक पादन्यास से ही पार किया जाना शक्य है । इसी दृष्टि से, विश्व के प्राचीनतम, तीन दर्शनों-जैन, वैदिक एवं बौद्ध में, उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है । यह विचार, जैनदर्शन में 'गुणस्थान' नाम से, वैदिक दर्शन में 'भूमिका' नाम से, और बौद्ध दर्शन में 'अवस्था' नाम से प्रसिद्ध है ।
यद्यपि, आत्मा के मौलिक गुणों के क्रमिक विकास का दिग्दर्शन कराने के लिए 'गुणस्थान' के नाम से जैसा सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन जैनदर्शन में किया गया है, वैसा, सुनियोजित क्रमबद्ध एवं स्पष्ट विचार, अन्य दर्शनों में नहीं है । तथापि, वैदिक और बौद्धदर्शनों के कथनों की, जैनदर्शन के साथ आंशिक समानता है । इसीलिए, गुणस्थानों का विचार करने से पूर्व, वैदिक और बौद्धदर्शन के विचारों का अध्ययन संकेत भर यहाँ करना उचित है ।
वैदिक दर्शनों में आत्मा की भूमिकाएं - वैदिक दर्शन के पातंजल योगसूत्र' में और 'योगवाशिष्ठ' में भी, आध्यात्मिक भूमिकाओं पर विचार किया गया है । पातंजल योगसूत्र में इन भूमिकाओं के नाम - मधुमती, मधुप्रतीका, विशोका और संस्कारशेषा उल्लिखित । जबकि योगवाशिष्ठ में 'ज्ञान' एवं 'अज्ञान' नाम के दोनों विभागों के अन्तर्गत सात-सात भूमिकाएँ, कुल चौदह भूमिकाएँ उल्लि खित हैं । इनके वर्णन के प्रसंग में, ऐसी बहुत-सी बातों के संकेत हैं, जिनकी समानता, जैनदर्शनसम्मत अभिप्रायों के साथ पर्याप्त मिलती-जुलती है । उदाहरण के लिए, जैन शास्त्रों में 'मिथ्यादृष्टि' या 'बहिरात्मा' के रूप में, अज्ञानी जीव का जो लक्षण बतलाया गया है, वही लक्षण, योग
१ आत्मधिया समुपात्तकायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा । - योगशास्त्र, प्रकाश - १२
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वाशिष्ठ' और पातंजल योगसूत्र' में भी बतलाया गया है । जैनशास्त्रों में 'मिथ्यात्व' का फल 'संसार बुद्धि' और 'दुःख रूप' में वर्णित है, यही बात, 'योगवाशिष्ठ' में अज्ञान के फलरूप में बतलाई गई है 14 जैन शास्त्रों में 'मोह' को बंध / संसार का हेतु माना गया है तो, यही बात, प्रकारान्तर से योगवाशिष्ठ में भी कही गई है ।" जैनशास्त्रों में 'ग्रन्थिभेद' का जैसा वर्णन है, वैसा ही वर्णन, 'योग वाशिष्ठ' में भी है ।" योगवाशिष्ठ में 'सम्यग्ज्ञान' का जो लक्षण बतलाया गया है, वह जैन शास्त्रों के अनुरूप है । जैन शास्त्रों में 'सम्यग्दर्शन' की प्राप्ति, स्वभाव और बाह्य निमित्त दो प्रकार से बतलाई गयी है । योगवाशिष्ठ में 'ज्ञान प्राप्ति' का, वैसा हो क्रम सूचित किया गया है ।
योगवाशिष्ठ में प्रतिपादित चौदह भूमिकाएँ" ये हैं - (१) 'अज्ञान' की भूमिकाएँ- बीज जागृत जागृत, महाजागृत, जागृत-स्वप्न, स्वप्न, स्वप्नजागृत, और सुषुप्तक । (२) 'ज्ञान' की भूमिकाएँशुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्त्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थाभाविनी, और तूर्यगा । इनका संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित प्रकार है
१ यस्य ज्ञानात्मनो ज्ञस्य देह एवात्मभावना | उदितेति रुषैवाक्ष रिपवोऽभिभवन्ति तम् ॥
- योगवाशिष्ठ-निर्वाणप्रकरण पूर्वा० स०-६ २ अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या | - पातञ्जलयोगसूत्र - साधनापाद - ५ १३ विकल्पचषकैरात्मा पीतमोहासवो ह्ययम् । भवोच्चतालमुत्ताल प्रपञ्चमधिष्ठिति ॥
- ज्ञानसार-मोहाष्टक ४ अज्ञानात्प्रसूता यस्माज्जगत्पर्णपरम्पराः । यस्मिस्तिष्ठन्ति राजन्ते विसन्ति विलसन्ति च ।। — योगवाशिष्ठ- निर्वाण प्रकरण. स०-६ ५ अविद्या संसृतिबंधो माया मोहो महत्तमः । कन्पितानीति नामानि यस्या: सकल वेदिभिः ॥ - योगवाशिष्ठ - उत्पत्तिप्रकरण-स०-१/२०
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१. बीज- जागृत - इस भूमिका में, 'अहं' बुद्धि की जागृति तो नहीं होती, किन्तु जागृति की योग्यता, बीज रूप में पायी जाती है ।
२. जागृत - इस भूमिका में, अहं बुद्धि, अल्पांश में जागृत होती है ।
३. महाजागृत - इसमें 'अहं बुद्धि' विशेष रूप से जागृत - 'पुष्ट' होती है । यह भूमिका, मनुष्य / देवसमूह में मानी जा सकती है ।
४. जागृत-स्वप्न - इस भूमिका में, जागते हुए भी भ्रम का समावेश होता है । जैसे, एक चन्द्र के बदले दो चन्द्र दिखाई देना, सीपी में चाँदी का भ्रम होना ।
५. स्वप्न - निद्रावस्था में आये स्वप्न का, जागने के पश्चात् भी भान होना ।
६. स्वप्न जागृत- वर्षों तक प्रारम्भ रहे हुए स्वप्न का इसमें समावेश होता है। शरीरपात हो जाने पर भी इसकी परम्परा चलती रहती है । ७. सुषुप्तक- प्रगाढ़ - निद्रा जैसी अवस्था | इसमें 'जड़' जैसी स्थिति हो जाती है, और कर्म, मात्र वासना रूप में रहे हुए होते हैं ।
८. शुभेच्छा - आत्मावलोकन की वैराग्ययुक्त इच्छा ।
६ ज्ञप्तिहि ग्रन्थिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता । मृगतृष्णाम्बुबुद्धया दिशन्ति मात्रात्मकस्वत्वसौ ॥ वही, उत्पत्तिप्रकरण, सर्ग - ११८ / २३ अनाद्यन्तावभासात्मा परमात्मेह विद्यते । इत्ये कोनिश्चयः स्फारः सम्यग्ज्ञानं विदुर्बुधः ॥ वही - उपशमप्रकरण, सर्ग - ७६ / २ अ. तन्निसर्गादधिगमाद्वा-त्त्वार्थ सूत्र - अध्याय - १/३ ब. एकस्तावद्गुरुप्रोक्तादनुष्ठानाच्छन्नं शनैः । जन्मना जन्मभिर्वापि सिद्धिदः समुदाहृतः ॥ द्वितीयास्त्वात्मनैवाशु किंचिद्व्युत्पन्नचेतसा । भवति ज्ञानसं प्राप्तिराकाशफलपातवत् ॥
-वही - उपशमप्रकरण, सर्ग - ७/२, ४ ६ वही - उत्पत्तिप्रकरण - सर्ग - ११७/२, ११, २४ तथा सर्ग ११८/५ - १५
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8. विचारणा-वैराग्य-अभ्यास के कारण, से लेकर 'स्वरूप' की पराकाष्ठा प्राप्त कर लेने तक सदाचार में प्रवृत्ति होना।
की अवस्था का वर्णन, बौद्ध ग्रंथों में, निम्नलिखित १०. तनुमानसा-'शुभेच्छा' और 'विचारणा' पाँच विभागों में विभाजित है। के कारण इन्द्रिय-विषयों के प्रति विरक्ति में वृद्धि १-'धर्मानुसारी' या श्रद्धानुसारी' वह कहहोना।
लाता है, जो निर्वाण-मार्ग-मोक्षमार्ग का अभिमुख ११. स्वत्वापत्ति –'सत्य' और 'शुद्ध' आत्मा हो, किन्तु, उसे अभी निर्वाण प्राप्त न हुआ हो। में स्थिर होना ।
२-सोतापन्न- मोक्षमार्ग को प्राप्त किये हुई १२. असंसक्ति-वैराग्य के परिपाक से चित्त आत्माओं के विकास की न्यूनाधिकता के कारण SNI में निरतिशय-आनन्द का प्रादुर्भाव होना। 'सोतापन्न' आदि चार विभाग हैं। जो आत्मा,
१३. पदार्थाभाविनी-बाह्य और आभ्यन्तर अविनिपात, धर्मनियत और संबोधि-परायण हो, सभी पदार्थों पर से इच्छाएं नष्ट हो जाना। उसे 'सोतापन्न' कहते हैं। 'सोतापन्न' आत्मा, सातवें
१४. तूर्यगा-भेदभाव का अभाव हो जाने से भव में अवश्य ही निर्वाण प्राप्त करती है। C एकमात्र स्वभावनिष्ठा में स्थिर हो जाना। यह ३-सकदागामी-जो आत्मा, एक ही बार में,
'जीवन्मुक्त' जैसी अवस्था होती है । इस स्थिति के इस लोक में जन्म ग्रहण करके, मोक्ष जाने वाली
बाद की स्थिति, 'तूर्यातीत' अवस्था-'विदेहमुक्ति' आत्मा हो, उसे 'सकदागामी' कहते हैं। E अवस्था होती है।
४-अनागामी-जो आत्मा, इस लोक में उक्त चौदह अवस्थाओं में प्रारम्भ की सात जन्म ग्रहण करके, ब्रह्मलोक से सीधे मोक्ष जाने भूमिकाएँ, अज्ञान की प्रबलता पर आधारित हैं। वाली आत्मा हो। इसलिए, इन्हें आत्मा के मौलिक गुणों के अविकास ५-अरहा-जो सम्पूर्ण आस्रवों का क्षय करके क्रम में गिना जाता है। जबकि, बाद की सातों कृतकृत्य हो जाती है, ऐसी आत्मा को 'अरहा'
भूमिकाओं में 'ज्ञान' की वृद्धि होती रहती है। इस- कहते हैं । इसके बाद निर्वाण की स्थिति बनती है। ५ लिए इन्हें 'विकास-क्रम' में गिना जाता है। जैन- उक्त पाँचों प्रकार की आत्माएँ, उत्तरोत्तर,
परिभाषा के अनुसार इन्हें क्रमशः 'मिथ्यात्व' एवं अल्पश्रम से 'मार'-काम के वेग पर विजय प्राप्त 'सम्यक्त्व' अवस्थाओं का सूचक माना गया है। करने वाली होती हैं । 'सोतापन्न' आदि उक्त चार
बौद्धदर्शनसम्मत अवस्थाएँ-बौद्धदर्शन, यद्यपि अवस्थाओं का विचार, जैनदर्शनसम्मत चौथे गुणक्षणिकवादी है। फिर भी, उसमें आत्मा की स्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के विचारों 'संसार' और 'मोक्ष' अवस्थाएँ मानी गई हैं। अत- मिलता-जुलता है, जो, गुणस्थानों से वर्णन से स्पष्ट एव उसमें भी आध्यात्मिक-विकास वर्णन का हो जायेगा। होना स्वाभाविक है। 'स्वरूपोन्मुख' होने की स्थिति बौद्ध ग्रंथों में दश-संयोजनाएं-बंधन वर्णित हैं।
के
इसी को जैनशास्त्रों में 'मार्गानुसारी' कहा है और उसके पैतीस गुण बताये गए हैं। दृष्टव्य-हेमचंद्राचार्यकृत 'योगशास्त्र-प्रकाश-१ जैनशास्त्रों में 'संयोजना' शब्द का प्रयोग, अनन्त संसार को बांधने वाली 'अनन्तानुबंधी कषाय' के लिए किया हैं। इसी प्रकार बौद्धग्रन्थों में भी संयोजना का अर्थ 'बन्धन' लिया गया है। उसके दस नाम इस प्रकार हैं
सक्कायदिछि, विचिकच्छा, सीलब्बतपराभास, कामणा, पट्टीघ, रूपराग, अल्पराग, मान, उद्धच्च और __अविज्जा । -मज्झिमनिकाय (मराठी रूपान्तर) पृष्ठ-१५६, (टिप्पण)
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उनमें से पाँच 'ओरंभागीय' और पाँच 'उड्ढंभा- ५. सेख-शिल्प-कला आदि के अध्ययन के
गोय' कही जाती है। प्रथम तीन संयोजनाओं का समय की शिष्य-भूमिका । अक्षय हो जाने पर सोतापन्न अवस्था प्राप्त होती है। ६. समण-गृह-त्याग कर संन्यास ग्रहण
इसके बाद राग-द्वेष-मोह शिथिल होने पर 'सकदा- करना। गामी' अवस्था, पाँच ओरंभागीय संयोजनाओं का ७. जिन-आचार्य की उपासना कर ज्ञान नाश होने पर 'अनागामी' अवस्था तथा दसों संयो- प्राप्त करने की भूमिका।। जनाओं का नाश हो जाने पर 'अरहा' पद प्राप्त ८. पन्न-प्राज्ञ-भिक्षु, जब दूसरों से विरक्त हो होता है।
जाता है, ऐसे निर्लोभ-श्रमण की भूमिका। 20 'आजीवक' मत में आत्मविकास की क्रमिक उक्त आठ में से आदि की तीन भूमिकाएँ,
स्थितियां-आजीवक मत का संस्थापक मंखलिपुत्र अविकास की सूचक और अन्त की पाँच भूमिकाएँ, गोशालक है। जो, भगवान् महावीर की देखा-देखी विकास की सूचक हैं। इनके बाद मोक्ष प्राप्त करने वाला एक प्रतिद्वन्द्वी था। इसलिए उसने भी होता है। आत्मा के मौलिक गुणों के क्रमिक विकास की यद्यपि, उक्त योग, बौद्ध और अजीवक-मतस्थितियों के निदर्शन हेतु, गुणस्थानों जैसी परि- मान्य आत्म-विकास की भूमिकाएँ, जैनदर्शन सम्मत कल्पना अवश्य की होगी। किन्तु, उसके सम्प्रदाय गणस्थानों जैसी क्रमबद्धता और स्पष्ट स्थिति की
का कोई स्वतन्त्र-साहित्य/ग्रंथ उपलब्ध न होने के नहीं हैं, तथापि, उनका प्रासंगिक-संकेत, इसलिए Pा कारण, इस सम्बन्ध में, कुछ भी, सुनिश्चित रूप से किया है कि पनर्जन्म. लोक. परलोक मानने वाले
नहीं कहा जा सकता। तथापि, बौद्ध-साहित्य में दार्शनिकों ने. आत्मा का संसार से मुक्त होने का उपलब्ध, आजीवकसम्मत, आत्म-विकास के निम्न
1 चिन्तन किया है। अतएव, उक्त दार्शनिकों के लिखित आठ सोपान माने जा सकते हैं!-मन्द, चिन्तन के परिप्रेक्ष्य में, जैनदर्शन के दृष्टिकोण से, खिड्डा, पदवीमंसा, उज्जुगत, सेख, समण, जिन आत्म-गणों के विकास का क्रम, और विकास-पथ 2 और पन्न । इनका आशय इस प्रकार है- पर क्रम-क्रम से बढ़ती आत्मा की विशुद्धताजन्य
१. मन्द-जन्म-दिन से लेकर सात दिनों तक, स्थिति का दिग्दर्शन कराने के लिए, संक्षेप में, गुणगर्भनिष्क्रमण, जन्म-दुःख के कारण, प्राणी 'मन्द' स्थान क्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की जा रही है। ल स्थिति में रहता है।
_ 'गुणस्थान' का लक्षण-एक पारिभाषिक शब्द २. खिड्डा-दुर्गति से लेकर जन्म लेने वाला है-गणस्थान । इसका अर्थ है-'गुणों के स्थान' । । बालक, पुनः-पुनः रुदन करता है। और, सुगति से अर्थात्, आत्मा की मौलिक शक्तियों के विकास र आने वाला बालक, सुगति का स्मरण कर हँसता क्रम की द्योतक वे अवस्थाएं, जिनमें आत्मशक्तियों ए जा है । यह 'खिड्डा' (क्रीडा) भूमिका है। के आविर्भाव से लेकर, उनके शुद्ध-कार्यरूप में परि
३. पदवीमंसा-माता-पिता का, या अन्य णत होते रहने की तर-तम-भावापन्न अवस्थाओं STIf किसी का सहारा लेकर, धरती पर बालक का पैर का द्योतन स्पष्ट होता है। यद्यपि, आत्मा अपने रखना।
मौलिक रूप में 'शुद्ध चेतन' और 'आनन्दघन' है। ... ४. उज्जुगत-पैरों से, स्वतन्त्र रूप में चलने फिर भी, जब तक राग-द्वेष एवं तज्जन्य कर्माकी सामर्थ्य प्राप्त करना।
वरण से आच्छादित है, तब तक उसे अपना यथार्थ
१ मज्झिमनिकाय-सुमंगलविलासिनी टीका तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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स्वरूप दृष्टिगत नहीं होता। लेकिन, जैसे-जैसे 'उत्क्रान्ति' और भी ऊर्ध्वमुखो हो जाती है, जिससे राग-द्वेष का आवरण शिथिल या नष्ट होता है, स्वरूप-स्थिरता बढ़ने लगती है । अन्ततः, प्रयत्नो-1 वैसे-वैसे उसका असली स्वरूप प्रकट होता न्मुखी आत्मा, 'दर्शनमोह' व 'चारित्रमोह' का जाता है।
सर्वथा-नाश करके, पूर्णता को प्राप्त कर लेने पर ही ___इस विकास-मार्ग में जीव को अनेक अवस्थाएँ विराम लेती है। आत्मा का यही तो परमसाध्य 180 पार करनी पड़ती हैं। जैसे, थर्मामीटर की नली के ध्यय है। अंक, उष्णता के परिणाम को बतलाते हैं, वैसे ही, आशय यह है कि आत्मा के मौलिक-गुणों के उक्त अवस्थाएँ, जीव के आध्यात्मिक विकास की विकास का यह क्रम, 'दर्शन' तथा 'चारित्र' मोह-102 मात्रा का संकेत करती हैं। विकास-मार्ग की इन्हीं शक्ति की शुद्धता के तर-तम-स्वरूप पर निर्भर होता क्रमिक अवस्थाओं को 'गुणस्थान' कहते हैं। है । शुद्धता की इसी तर-तमता के कारण, विकासो- )
गुणस्थान-क्रम का आधार-आत्मा की प्रार- न्मुख आत्मा, जिन-जिन भूमिकाओं के स्तरों पर म्भिक अवस्था, अनादिकाल से अज्ञानपूर्ण है। यह पहु'
पहुँचता है, उन्हीं की संज्ञा है-'गुणस्थान'। अवस्था, सबसे प्रथम होने के कारण निकृष्ट है। 'ग्रंथि का स्वरूप और उसके भेदन की प्रक्रिया : इस अवस्था का कारण है-'मोह'। मोह की गुणस्थान क्रम का आधार है-मोह की 'सबलता' प्रधान शक्तियाँ दो हैं, जिन्हें शास्त्रीय भाषा में और 'निर्बलता', यह पूर्व में ही संकेतित है। इस 'दर्शनमोह' और 'चारित्रमोह' कहते हैं। इनमें से 'मोह' को कैसे निर्बल बनाया जाये, संक्षेप में विचार प्रथम शक्ति, आत्मा को 'दर्शन'-स्व-पररूप का कर ले। निश्चयात्मक निर्णय, विवेक और विज्ञान-नहीं आत्मा का स्वरूप, अनादिकाल से 'अधःपतित' होने देती है। जबकि दूसरी शक्ति, विवेक प्राप्त है। इसका कारण राग-द्वेष रूप मोह का प्रबलतम कर लेने पर भी, आत्मा को तदनुसार प्रवृत्ति नहीं आचरण है। इस तरह के आचरण का ही नाम, करने देती। व्यवहार में देखते हैं कि वस्तु का जैन शास्त्रों ने 'ग्रन्थि' रखा है। लोक में भी हम ) यथार्थ दर्शन/बोध होने पर भी उसे 'प्राप्त करने' देखते हैं कि लकड़ी में जहाँ-जहाँ 'ग्रन्थि' होती है, या 'त्यागने' की चेष्टा, व्यक्ति द्वारा की जाती है। वहाँ से उसको काटना-छेदना दुस्साध्य होता है । आध्यात्मिक विकासोन्मुख आत्मा के लिए भी यही राग-द्वेषरूप ग्रन्थि-गाँठ की भी यही स्थिति होतो दो कार्य मुख्य होते हैं-(१) स्व-रूप दर्शन, और है। रेशमी-गाँठ की तरह यह सुदृढ़, सघन और (२) स्व-रूप स्थिति । 'दर्शनमोह' रूप प्रथम शक्ति दुर्भेद्य होती है । इसी के कारण जीव अनादि काल जब तक प्रबल रहती है, तब तक 'चारित्रमोह' रूप से ससार में परिभ्रमण कर रहा है और विविध दुसरी शक्ति भी तदनुरूप बनी रहती है। स्वरूप- प्रकार के दुःख वेदन कर रहा है। बोध हो जाने पर स्वरूप-लाभ का मार्ग सुगम यद्यपि, इस स्थिति में विद्यमान समस्त आत्माओं होता जाता है। किन्तु, स्वरूप-स्थिति के लिए को हम एक जैसा 'संसारी' 'बद्ध' आत्मा, मानते हैं, आवश्यक है कि मोह की दूसरी शक्ति-'चारित्र- तथापि इनके आध्यात्मिक स्वरूप में एक जैसा मोह' को शिथिल किया जाये। इसोलिए, आत्मा समान-स्तर नहीं होता। क्योंकि, संसारी-जीवों में, उसे शिथिल करने का प्रयत्न करती है, और, जब मोह की दोनों शक्तियों का आधिपत्य, इनमें 'समा-.. वह इसे अंशतः शिथिल कर लेती है, तब, उसकी नता' का द्योतन कराता अवश्य है, किन्तु, प्रत्येक
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१४ विशेष विस्तार के लिए देखें-विशेषावश्यक भाष्य, गाथा--११६५ से ११६७तक ।
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जीवात्मा में, इस आधिपत्य का कुछ न कुछ तर- में राग-द्वेष के तीव्र प्रहारों से आहत होकर 'हार' तम भाव रहता ही है, जिससे इन सबकी संसार- मानकर अपनी मूल-स्थिति में आ जाती हैं। ऐसी स्थिति में विभिन्नता आ जाना, सहज हो जाता है। आत्माएँ प्रयत्न करने पर भी राग-द्वेष पर विजय किसी जीवात्मा पर 'मोह' का प्रगाढ़ प्रभाव होता प्राप्त नहीं कर पातीं। अनेकों आत्माएँ ऐसी भी है, तो किसी में उससे कम, किसी में उससे भी कम होती हैं, जो न तो हार खाकर पीछे हटती हैं, और, होता है। जैसे, किसी पहाड़ी नदी में, बड़े-छोटे न ही 'जय' लाभ कर पाती हैं, तथापि, इस आध्यातमाम पत्थर, ऊपर से नीचे की ओर, जल प्रवाह त्मिक युद्ध में चिरकाल तक डटी रहती हैं। किन्तु के साथ लुढ़कते रहते हैं, और वे लुढ़कते, टकराते कोई-कोई आत्माएँ, ऐसी भी होती हैं, जो अपनी हुए गोल, चिकनी या अन्य अनेकों प्रकार की आकृ- शक्तियों का यथोचित प्रयोग करके आध्यात्मिक तियाँ प्राप्त करते रहते हैं । नदी प्रवाह में लुढ़कना, युद्ध में विजय का वरण का लेती हैं। मोह की टकराना, उनकी समान स्थिति का द्योतन करता दुर्भेद्य-प्रन्थि को भेद कर, उसे लांघ जाती हैं । जिन
है, किन्तु उनके लुढ़कने-टकराने से बनी अलग-अलग आत्म-परिणामों से ऐसा सम्भव हो जाता है, उसे - आकृतियाँ, उनमें विभिन्नता-विषमता की प्रतीक 'अपूर्वकरण' कहते हैं। होती हैं।
__अपूर्वकरण रूप परिणाम से राग-द्वेष की गांठ किन्तु, इन जीवात्माओं पर, जाने-अनजाने में, टट जाने पर, जीव के परिणाम अधिक शुद्ध होने 25 या अन्य किसी प्रकार से, मोह का प्रभाव जब कम लग जाते हैं। ये परिणाम, 'अनिवत्तिकरण' रूप 2ी होने लगता है, तब, वह अपने तीव्रतम राग- होते हैं। इनसे राग-द्वेष की अति तीव्रता का उन्मू30 द्वष आदि परिणामों को भी मंद' कर लेती हैं। लन हो जाता है, जिससे दर्शनमोह पर 'जय' लाभ
जिससे उसमें शनैः-शनै, एक ऐसा आत्मबल प्रगट करना सहज बन जाता है। दर्शनमोह पर विजय होने लगता है, जो उसके मोह को छिन्न-भिन्न करने प्राप्त कर लेने पर, अनादिकाल से चली आ रही का कारण बनता है। जैन दार्शनिक शब्दावली में परिभ्रमण रूप संसारी अवस्था को नष्ट करने का इस स्थिति को 'यथाप्रवृत्तकरण' कहते हैं। यथा- अवसर प्राप्त हो गया, मान लिया जाता है । इस प्रवृत्तकरण-बाली आत्माएँ, मोह की सघन-ग्रन्थि स्थिति को, जन-शास्त्रों की भाषा में 'अन्तरात्मभाव' तक पहँच तो जाती हैं, किन्तु उसे भेद पाने में समर्थ कह सकते हैं। क्योंकि इस स्थिति को प्राप्त करके, - नहीं बन पाती हैं। इस दृष्टि से इस स्थिति को विकासोन्मुख आत्मा, अपने अन्तस् में विद्यमान शुद्ध 'ग्रन्थिदेश-प्राप्ति' भी कहते हैं। ग्रन्थि-देश की प्राप्ति परमात्मभाव को देखने लगता है हो जाने से 'ग्रंथि भेदन' का मार्ग प्रशस्त बन जाता यथार्थ आध्यात्मिक दृष्टि (आत्म
दृष्टि) होने के कारण 'विपर्यास'- रहित होती है। माना ___ग्रन्थि भेदने का कार्य बड़ा विषम, दुष्कर है। जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावती में इसी को एक ओर तो राग-द्वेष अपने पूर्ण-बल का प्रयोग 'सम्यक्त्व' कहा गया है। करते हैं, दूसरी ओर, विकासोन्मुख आत्मा भी उनकी गुणस्थानों के नाम और क्रम-संसारी दशा में
शक्ति को क्षीण-निर्बल बनाने के लिए, अपनी वीर्य- आत्मा अज्ञान की प्रगाढ़ता के कारण, निकृष्ट * शक्ति का प्रयोग करती है। इस आध्यात्मिक-युद्ध अवस्था में रहता है, यह निर्विवाद है। किन्तु, इस
में, कभी एक तो कभी दूसरा, 'जय' लाभ करता अवस्था में भी अपनी स्वाभाविक चेतना 'चारित्र' है । अनेकों आत्माएँ ऐसी भी होती हैं, जो प्रायः आदि गुणों के विकास के कारण प्रगति की ओर ग्रन्थि-भेद करने लायक बल प्रकट करके भी, अन्त उन्मुख होने के लिये आत्मा लालायित रहती है, तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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මැලියම්ට
බුලම මම ඉදිමුම
CL तथा शनैः-शनैः इन शक्तियों के विकास के अनुसार वैसे ही 'स्थिरता' की मात्रा भी वृद्धिंगत होती जातो STI उत्क्रांति करती हुई विकास की चरम सीमा-पूर्णता है और अन्ततः चरम-स्थिति तक पहुंचती है । इसी Ke
प्राप्त करती है। प्रथम निकृष्ट-अवस्था से निकल दृष्टि से गुणस्थानों का उक्तक्रम निर्धारित कर विकास की अन्तिम भूमिका को प्राप्त कर लेना किया है। ही आत्मा का परमसाध्य है, और उसी में उसके 'दर्शन' और 'चारित्र' शक्ति की विशुद्धि की पुरुषार्थ की सफलता है।
'वृद्धि' एवं 'ह्रास', तत्तत शक्तियों के प्रतिबन्धक ____ इस 'परमसाध्य' की सिद्धि होने तक, आत्मा संस्कारों की न्यूनाधिकता अथवा तीव्रता मन्दता पर का को एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, अनेकों पर अवलम्बित है । इन प्रतिबंधक संस्कारों को चार क्रमिक अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है । इन विभागों में विभाजित किया जा सकता हैअवस्थाओं की श्रेणियों को 'उत्क्रांति मार्ग' 'विकास
१. 'दर्शनमोह' और 'अनन्तानुबन्धी कषाय'क्रम' और जैनशास्त्रों की भाषा में 'गुणस्थान यह दर्शन शक्ति का प्रतिबन्धक है। शेष तीन||| क्रम' कहते हैं। इस क्रम की विभिन्न अवस्थाओं विभाग. चारित्र शक्ति के प्रतिबन्धक हैं। को चौदह भागों में संक्षेपतः विभाजित कर दिया
२. अप्रत्याख्यानावरण कषाय-यह प्रतिबंधक, गया है । इसलिये, इसे 'चतुर्दश गुणस्थान' भी कहा 'एकदेश चारित्र' का भी आंशिक विकास नहीं होने जाता है । इनके नाम एवं क्रम इस प्रकार हैं : देता।
१. मिथ्यात्व, २. सास्वादन (सासादन), ३. मिश्र (सम्यगमिथ्यादृष्टि) ४. अविरतसम्यग्दृष्टि,
३. प्रत्याख्यानावरण कषाय-यह प्रतिबन्धक, 0
'सर्वविरति' रूप चारित्र शक्ति के विकास में बाधक ५. देशविरत, ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८.निवत्ति (अपूर्वकरण) 8. अनिवत्तिबादर सम्प
बनता है। राय, १०. सूक्ष्मसम्पराय, ११. उपशांतमोह १२. ४. संज्वलन कषाय-चारित्रशक्ति का विकास / क्षीणमोह, १३. सयोगिकेवली, १४. अयोगिकेवली। हो जाने पर भी उसकी 'शुद्धता' या 'स्थिरता' में US
अंतराय उपस्थित करने में यह प्रतिबन्धक निमित्त ___ उक्त चौदह गुणस्थानों में प्रथम की अपेक्षा
बनता है। दूसरा, दूसरे की अपेक्षा तीसरा, अर्थात् पूर्व-पूर्व
प्रथम तीन गुणस्थानों में, पहले प्रतिबन्धक की वर्ती गुणस्थान की अपेक्षा पर-परवर्ती गुणस्थानों
) में विकास की मात्रा अधिक रहती है। विकास की प्रबलता रहता है। जिससे 'दर्शन' और 'चारित्र इस न्यूनाधिकता का निर्णय आत्मिक स्थिरता की
शक्ति का विकास नहीं हो पाता। किन्तु, चतुर्थ । न्यूनाधिकता पर अवलम्बित है, और इस स्थिरता
आदि गुणस्थानों में, इन प्रतिबन्धक संस्कारों की की तर-तमता 'दर्शन' एवं 'चारित्र' शक्ति की
__ मन्दता हो जाती है, जिससे आत्मशक्तियों के
विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। शुद्धि के तार-तम्य पर आधारित है । दर्शन-शक्ति का जितना विकास होगा उतनी ही अधिक निर्मलता चतुर्थ गुणस्थान में 'दर्शनमोह' और 'अनन्ताव विकास उसका होगा । दर्शन-शक्ति के विकास के नुबन्धी' संस्कारों की प्रबलता नहीं रह जाती। अनन्तर चारित्र शक्ति के विकास का क्रम आता किन्तु, चारित्र शक्ति के आवरणभूत संस्कारों का है । जितना अधिक चारित्र शक्ति का विकास होगा वेग अवश्य रहता है। इनमें से 'अप्रत्याख्यानाउतना ही उतना 'क्षमा' 'इन्द्रिय जय' आदि चारित्र वरण' कषाय के संस्कार का वेग चौथे गुणस्थान गुणों का विकास होता जाता है। 'दर्शन' और से आगे नहीं रहता, जिससे पंचम गुणस्थान में 'चारित्र' शक्ति की विशुद्धि जैसे-जैसे बढ़ती है, वैसे- चारित्रिक शक्ति का प्राथमिक विकास होता है।
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'प्रत्याख्यानावरण' कषाय नामक संस्कार का तीन स्थितियों में से स्वल्प-सम्यक्त्व वाले जीवों के वेग, पाँचवें गुणस्थान से आगे नहीं होता जिससे लिए 'दूसरा'-'सासादन'-गुणस्थान; अर्ध-सम्यक्त्व 12 चारित्र-शक्ति का विकास और अधिक बढ़ता है। और अर्ध-मिथ्यात्व वाले जीवों के लिए 'तीसरा' इस कारण आत्मा, बाह्य इन्द्रिय भोगों से विरत 'मिश्र' गूणस्थान; और विशुद्ध-सम्यक्त्व किन्तु होकर 'श्रमण'-'संन्यासी' हो जाता है। यह स्थिति चारित्ररहित जीवों के लिये 'चौथा'-'अविरत छठवें गुणस्थान की भूमिका की सर्जिका बनती है। सम्यग्-दृष्टि' गुणस्थान है । इस गुणस्थान में दर्शनछठवें गुणस्थान में चारित्र-शक्ति को मलिन करने मोह शक्ति उपशमित हो जाती है, अथवा सर्वथा वाले 'संज्वलन' कषाय रूप संस्कारों के रहने से क्षय हो जाती है। लेकिन, चारित्र-मोह शक्ति बनी यद्यपि चारित्र-शक्ति का विकास दबता तो नहीं, रहती है। इसलिये, ये चारित्र-रहित सम्यग्दृष्टि- INK किन्त स्वरूप-लाभ की स्थिरता में व्यवधान आते जीव 'चौथे'-अविरत-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाले रहते हैं। आत्मा, जब इन संस्कारों को अधिक-से- जीव कहलाते हैं।
अधिक निर्बल कर देती है, तब 'उत्क्रांतिपथ' की जो जीव 'सम्यक्त्व' और 'चारित्र' सहित हैं, Lil सातवीं आदि भूमिकाओं (गुणस्थानों) को उलाँघ
उनके भी दो प्रकार हैं-१-एकदेश (आंशिक) कर ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाती है।
चारित्र के पालक; और २-सर्वदेश (सम्पूर्ण) चारित्र ) बारहवें गुणस्थान में 'दर्शन' और 'चारित्र' शक्ति के
का पालन करने वाले। इन दोनों भेदों ८ प्रतिबंधक-संस्कार सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। अतः
में से 'एकदेशचारित्र' का पालन करने वाले जीवों इन दोनों ही शक्तियों का पूर्णरूपेण विकास यद्यपि तेरहवें गुणस्थान में हो जाता है, तथापि शरीर का
का ग्रहण करने के लिए 'पाँचवाँ'- 'देशविरतगुण
स्थान' है। सद्भाव, उस आत्मा के साथ बना रहता है। जबकि चौदहवें गुणस्थान में शरीर का भी सम्बन्ध नहीं 'सम्पूर्ण चारित्र का पालन करने वाले जीव भी रह जाता। अतः चारित्र शक्ति, अपने यथार्थ रूप में दो श्रेणियों के हैं-१-प्रमादवश 'अतिचार' यानी विकसित होकर सदा-सर्वदा के लिए एक-सी बन 'दोष'-संपृक्त हो जाने वाले; और २-प्रमाद-रहित जाती है। इसी अवस्था को 'मोक्ष' कहते हैं। निर्दोष'-चारित्र का पालन करने वाले । इनमें से
गुणस्थान चौदह ही क्यों ?:-सामान्यतया प्रमादवश-अतिचार-संपृक्त सर्व-संयमी का ग्रहण ||K आध्यात्मिक दृष्टि से संसारी जीवों के दो प्रकार कराने वाला 'छठा'-यानी 'प्रमत्त-संयत' गुणस्थान हैं-१-मिथ्यावादी (मिथ्यादृष्टि)-अर्थात्, गाढ- है। जबकि प्रमादरहित, निर्दोष-चारित्र का पालन अज्ञान और विपरीत बुद्धि वाले जीव, २-सम्यक्त्वी करने वाले जीवों का बोधक 'सातवाँ'-'अप्रमत्त (सम्यग्दृष्टि) अर्थात् ज्ञानी, विवेकशील, प्रयोजनभूत संयत'-गुणस्थान है। लक्ष्य के मर्मज्ञ ।
__ यद्यपि, इस अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव ____ उक्त दोनों प्रकार के जीवों में से प्रथम प्रकार को अभी पूर्ण-वीतराग दश
को अभी पूर्ण-वीतराग दशा प्राप्त नहीं हई है, के जीवों का बोध कराने वाला पहला गणस्थान और 'छद्मस्थ'-'कर्मावत' है, किन्तु, वीतरागदशा ॐ 'मिथ्यात्व' यानी 'मिथ्यादृष्टि' गुणस्थान है । सम्यग- प्राप्त करने की ओर उन्मुख है, जिससे, इस गुण- KC दृष्टि-जीवों के तीन प्रकार होते हैं-१-सम्यक्त्व से स्थानवर्ती कितने ही जीव, व्यवस्थित रीति से ) गिरते समय के स्वल्प-सम्यक्त्व वाले जीव, २-अर्ध- कर्मों का क्षय करने के लिये श्रेणी-आरोहण करते सम्यक्त्व और अर्ध-मिथ्यात्व वाले जीव, ३-विशुद्ध हैं। इस तरह के जीवों की आध्यात्मिक-विशुद्धि सम्यक्त्व वाले किन्तु चारित्र-रहित जीव । इन उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। श्रेणी-आरोहण का
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यह क्रम, प्रत्येक समय 'अपूर्व' बनता रहता है। तेरहवें गुणस्थानवी जीव की संज्ञा दी जाती है। लॉ फलतः एक श्रेणी-क्रम की दूसरे श्रेणीक्रम से, दूसरे किन्त, जब शरीर आदि योगों से रहित, शुद्ध-ज्ञान- 12 | श्रेणीक्रम की तीसरे श्रेणीक्रम से तुलना/समानता दर्शनयक्त स्वरूप में रमण करने वाली आत्मा प्रकट नहीं होती है । इसी से, इन श्रेणीक्रमों वाले जीव हो जाती है, तब इस स्थिति को अयोगिकेवली को 'निवृत्ति' यानी 'अपूर्व'-करण नामक आठवें नामक चौदहवाँ गुणस्थान कहा जाता है। गुणस्थान वाला कहा जाता है।
इस प्रकार, गाढ़ अज्ञान से प्रारम्भ हआ आत्म- श्रेणी-आरोहण से विशुद्धता को प्राप्ति, और
विकास का चरमस्थान, उत्तरोत्तर क्रम से प्राप्त उसमें ऋमिक वृद्धि होते रहने से, यद्यपि कषायों में होता है । इसके 'आदि' और 'अन्त' के अन्तराल में निर्बलता, पर्याप्त आ जाती है, फिर भी, इन बारह 'पडाव'-'स्थान' ही सम्भव बन पाते हैं। कषायों में पुनः उद्रेक होने की योग्यता बनी रहती इन्हें 'आदि' और 'अन्त' यानो 'चरम' के साथ है। अतः ऐसे कषाय-परिणाम वाले जीवों का मिला ले
न संख्या 'चौदह' बन जाती है। बोध कराने वाला 'अनिबृत्तिबादर'-संपराय इसी कारण से जैन शास्त्रों में चौदह गुणस्थानों की नामक नौवाँ गुणस्थान है।
व्यवस्था को स्वीकार किया गया है। ___इस नौवें गुणस्थान में कषायों को प्रति-समय
___गुणस्थानों का स्वरूप-जीव के विकास की कृश से कृशतर करने की प्रक्रिया चालू रहती है,
प्रक्रिया की सीढ़ी का प्रारम्भिक स्थान हैजिससे एक ऐसी स्थिति आ जाती है, जिससे मंसार
'मिथ्यात्व' नाम का पहला गुणस्थान। इस की कारणभूत कषायों की मात्र झलक सी दिखाई / देती है। इस स्थिति का ज्ञान कराने वाला दशवाँ
। विकास को पूर्णता प्राप्त होती है 'अयोगि केवली'
नाम के चौदहवें गुणस्थान में । इन चौदहों गुण- 'सूक्ष्मसंपराय' नामक गुणस्थान है।
स्थानों का स्वरूप संक्षेप में, निम्नलिखित रूप में जिस तरह, झलकमात्र जैसी अतिसूक्ष्म अस्तित्व
जाना/समझा जा सकता है। रखने वाली वस्तु या तो तिरोहित हो जाती है, या । नष्ट, उसी तरह, जो कषायवृत्ति अत्यन्त कृश हो .
१. मिथ्यात्व गुणस्थान-'मिथ्यात्व' नाम के गई है, उसके उपशमित अथवा पूर्णरूपेण नष्ट हो मोहनीय कर्म के उदय से जिस जीव की दृष्टि जाने से जीव को अपने निर्मल स्वरूप का दर्शन यानी श्रद्धा-प्रतिपत्ति, 'मिथ्या' यानी विपरीतहोने लगता है। इस प्रकार की. यानी कषाय-शांत उल्टी होती है, उसे 'मिथ्यादृष्टि' कहते हैं । जैसेहोने की अथवा कषाय नष्ट होने की, स्थितियों के धतूरे के बीज खाने वाला मनुष्य, 'सफेद वस्तु' को दर्शक गणस्थानों को क्रमशः 'उपशान्त-मोह' और भी पीला' देखता है। इस प्रकार के मिथ्यादृष्टि 'क्षीणमोह' नामक ग्यारहवाँ -बारहवाँ गुणस्थान जीव के स्वरूप-विशेष को 'मिथ्यात्व'-'मिथ्याकहते हैं।
दृष्टि' कहते हैं। __बारहवें गुणस्थान में दर्शन और चारित्र शक्ति यद्यपि, मिथ्यादृष्टि की दृष्टि विपरीत है। के प्रतिबंधक मोहनीय-कर्म के सर्वथा क्षय होने के तथापि वह किसी अंश में यथार्थ भी होती है। क्योंकि साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों वह जीव भी मनुष्य, पशु-पक्षी आदि को इन्हीं का क्षय होने से जीव को अनन्तज्ञान-दर्शन आदि रूपों में जानता है, तथा मानना है। इसीलिये, निज गुण प्राप्त हो जाते हैं। लेकिन, अभी शरीर उसकी चेतना के स्वरूप-विशेष को 'गुणस्थान' आदि योगों का संयोग बना रहता है। इससे इस कहा जाता है । लेकिन, कुछ अंश में यथार्थ होने स्थिति में पहुँचे जीव को 'सयोगि केवली' नामक पर भी, उसे 'सम्यग्दृष्टि' न कहे जाने का कारण २५८
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यह होता है कि उसे सर्वज्ञ के वचन पर 'सम्यग्दृष्टि' की तरह अखण्ड अटूट विश्वास नहीं होता है ।
२. सासादन गुणस्थान – जो औपशमिक सम्यक्त्वी जीव, अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से 'सम्यक्त्व' को छोड़कर 'मिथ्यात्व' की ओर झुक रहा है, किन्तु अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है, ऐसे जीव के स्वरूप - विशेष को 'सासादन- सम्यग्दृष्टि कहते हैं । अर्थात्, जिस प्रकार पर्वत से गिर कर नीचे की ओर आते व्यक्ति की भूमि पर पहुँचने से पहले, मध्यकालवर्ती जो दशा होती है, वह न तो पर्वत पर ठहरने की स्थिति है, न ही भूमि पर स्थित होने की, बल्कि दोनों -स्थितियों से रहित, 'अनुभय दशा' होती है । इसी प्रकार, अनन्तानुबंधी कषायों का उदय होने के कारण, 'सम्यक्त्व-परिणामों से छूटने' और 'मिथ्यात्व - परिणामों के प्राप्त होने' के मध्य की अनुभयकालिक - स्थिति में जो जीव- परिणाम होते हैं, उन्हें बतलाने वाली जीवदशा का नाम है - 'सासादन- गुणस्थान' |
३. मिश्रगुणस्थान- इस गुणस्थान का पूरा नाम है - 'सम्यग् - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान' । इसी का संक्षिप्त नाम है 'मिश्रगुणस्थान' ।
मिथ्यात्व - मोहनीय के 'अशुद्ध' – 'अर्धशुद्ध' और 'शुद्ध', इन तीन पुँजों में से अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न होने से, 'शुद्धता' और 'मिथ्यात्व' अर्धशुद्धपुद्गलों का उदय होने से जब अशुद्धतारूप अर्धशुद्ध पुंज का उदय होता है, तब जीव की दृष्टि कुछ 'सम्यक्' (शुद्ध) और कुछ 'मिथ्या' (अशुद्ध) अर्थात् - 'मिश्र' हो जाती है ।
इस गुणस्थान दशा के समय, बुद्धि में दुर्बलता सी आ जाती है । जिससे जीव सर्वज्ञ प्रणीत तत्त्वों पर न तो 'एकान्त-रुचि' करता है, और न 'एकान्तअरुचि' | किन्तु, मध्यस्थ भाव रखता है । इस प्रकार की दृष्टि वाले जीव का स्वरूप- विशेष 'सम्यग् मिथ्यादृष्टि' (मिश्र) गुणस्थान कहलाता है ।
इस गुणस्थान की यह विशेषता है कि सम्यग् मिथ्यादृष्टि जीव, न तो परभव की आयु का बन्ध
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
करता है, और न 'मरण' को प्राप्त होता है । इस गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं हो सकता है और न ही वह 'संयम' ('सकल संयम' या 'देशसंयम' ) ग्रहण कर सकता है ।
४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- 'हिंसा' आदि सावद्य - व्यापारों के त्याग को 'विरति' कहते हैं । अतएव, जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर भी किसी प्रकार की 'विरति ' - 'व्रत' को धारण नहीं कर सकता, वह जीव 'अविरत सम्यग्दृष्टि' होता है । इसी के स्वरूप - विशेष को 'अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान' कहते हैं ।
इस गुणस्थानवर्ती जीव को अविरत सम्यग्दृष्टि कहने का कारण यह है कि सम्यग्दर्शन होने पर भी 'एकदेश संयम' की घातक 'अप्रत्याख्यानावरण' कषाय का उदय उसमें रहता है । इस तरह के जीवों में कोई जीव 'ओपशमिक' कोई 'क्षायोपशमिक' और कोई 'क्षायिक' सम्यक्त्वी होते हैं ।
५. देश विरतगुणस्थान - 'सकल संयम' की घातक कषाय का उदय होने के कारण, जो जीव सर्वसावद्य क्रियायों से सर्वथा तो नहीं, किंतु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होने से 'देश (अंश) से, पापजनक क्रियाओं से 'विरत' - 'पृथक्' हो सकते हैं, वे 'देशविरत' हैं। इन जीवों के स्वरूपविशेष को 'देशविरत' - गुणस्थान कहते हैं। देशविरत को 'श्रावक' भी कहते हैं ।
इस गुणस्थानवर्ती कोई जीव, एक व्रत लेते हैं, कोई दो व्रत, कोई तीन-चार-पाँच आदि बारह व्रत तक लेते हैं । ये व्रत 'अणुव्रत' 'गुणव्रत' और 'शिक्षा व्रत' इन तीन विभागों में विभाजित हैं । कोई जीव श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को धारण करते हैं । इस प्रकार, अधिक से अधिक व्रतों का पालन करने वाले श्रावक ऐसे भी होते हैं, जो पापकर्मों में अनुमति के सिवाय, परिवार से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखते हैं ।
६. प्रमत्त संयत गुणस्थान- जो व्यक्ति, पापजनक व्यापारों से विधिपूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते
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हैं, वे 'संयत' (मुनि) हैं। लेकिन ये संयत भी जब इस गुणस्थान को 'अपूर्वकरण' इसलिए कहा तक 'प्रमाद' का सेवन करते हैं, तब तक, 'प्रमत्त- जाता है कि इसमें निम्नलिखित पाँच बातें विशेष कार संयत' कहलाते रहते हैं। इन्हीं के स्वरूप-विशेष को रूप से होती हैं'प्रमत्त-संयत' गुणस्थान कहते हैं।
स्थितिघात- कर्मों की बडी स्थिति को अपवयद्यपि 'सकल संयम' को रोकने वाली प्रत्या- तनाकरण द्वारा घटा देना, अर्थात् आगे उदय में ख्यानावरण कषाय का अभाव होने से, इस गुण- आने वाले कर्मदलिकों को अपवर्तनाकरण के द्वारा जा स्थान में 'पूर्ण संयम' तो हो चुकता है, किंतु 'संज्व- अपने उदय के नियत समयों से हटा देना।
लन' आदि कषायों के उदय से संयम में 'मल' उत्पन्न रसघात-बद्ध-कर्मों की तीब्र-फलदान-शक्ति को
करने वाले प्रमाद के रहने से इसे 'प्रमत्त संयत' अपवर्तनाकरण के द्वारा मन्द करना । COAL कहते हैं । इस गुणस्थानवर्ती जीव, सावद्य कर्मों का गुणश्रेणी-उदय के नियत समयों से हटाए
यहाँ तक त्याग कर देते हैं, कि पूर्वोक्त 'संवा- गए-'स्थितिघात' किए गए कर्मदलिकों को समयसानुमति' को भी नहीं सेवते हैं।
क्रम से 'अन्तर्मुहूर्त' में स्थानान्तरित कर देना । ७. अप्रमत्त-संयत गुणस्थान-जो संयत (मुनि) गुणसंक्रमण-पूर्वबद्ध अशुभ प्रकृतियों को 'बध्य Sविकथा' 'कषाय' आदि प्रमादों को नहीं सेवते हैं, मान'--शुभप्रकृतियों में स्थानान्तरित कर देना।
वे 'अप्रमत्तसंयत' हैं। इनके स्वरूप-विशेष को अपूर्व स्थितिबन्ध-पहले की अपेक्षा अत्यन्त
'अप्रमत्तसंयत' गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान अल्प-स्थिति के कर्मों का बांधना। of में संज्वलन-नोकषायों और कषायों का मंद-उदय इस आठवें गुणस्थान में आत्मा की विशिष्ट
होने से व्यक्त-अव्यक्त प्रमाद नष्ट हो चुकते हैं। योगीरूप अवस्था आरम्भ होती है। छठे और SUB जिससे इस गुणस्थानवी जीव, सदैव ही ज्ञान, सातवें गुणस्थान में बारम्बार आने से विशेष प्रकार ध्यान, तप में लीन रहते हैं ।
की विशुद्धि-प्राप्त करके औपशमिक या क्षायिक'प्रमत्तसंयत' और 'अप्रमत्तसंयत' गुणस्थान भाव रूप विशिष्ट फल प्राप्त करने के लिए 'चारित्र८ में इतना अन्तर है कि 'अप्रमत्तसंयत' में थोड़ा सा मोहनीय'-कर्म का उपशमन या क्षय किया जाता
भी प्रमाद नहीं रहता, जिससे व्रत आदि में 'अति- है, जिससे 'उपशम' या 'क्षपक' श्रेणी प्राप्त होने
चार'- आदि सम्भव नहीं हो पाते । जबकि 'प्रमत्त वाली होती है। GB संयत' जीव के 'प्रमाद' होने से व्रतों में 'अतिचार' ६. अनिवृत्ति गुणस्थान-इसका पूरा नाम | लगने की सम्भावना रहती है।
'अनिवृत्ति बादर सम्पराय' गुणस्थान है। इसमें ८. निवृत्ति बादर गुणस्थान-इस गुणस्थान 'बादर'- स्थूल, 'सम्पराय'-कषाय, उदय में होता म का दूसरा नाम 'अपूर्वकरण' गुणस्थान भी है। जिस है, तथा सम-समयवर्गी-जीवों के परिणामों समानता Of 'अप्रमत्तसंयत' जीव की अनन्तानुबन्धी 'अप्रत्या- होने-भिन्नता न होने से, इस गुणस्थान को 'अनि
ख्यानावरण' और 'प्रत्याख्यानावरण' रूप कषाय- वृत्ति बादर-सम्पराय' गुणस्थान कहते हैं। CH चतुष्कों की निवृत्ति हो जाती है, उस अवस्था को इस नौवें गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव भा निवृत्तिबादर' गुणस्थान कहते हैं।
दो प्रकार के होते हैं-'उपशमक' और 'क्षपक' ।
१ प्रमाद के पन्द्रह प्रकार होते हैं
चार विकथाएं-स्त्रीकथा, भक्तकथा, राजकथा, चौरकथा, चार कषाएं-क्रोध, मान, माया, लोभ, स्पर्शन
रसन, आदि पांच इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति तथा निद्रा और स्नेह २ 'उपशम' श्रेणि और 'क्षपक' श्रेणि का आशय आगे स्पष्ट किया जा रहा है ।
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चारित्रमोहनीय का शमन करने वाले 'उपशमक' स्थानों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता। और 'क्षय' करने वाले 'क्षपक' कहलाते हैं। मोह- क्योंकि, आगे के गुणस्थान वही प्राप्त कर सकता नीय-कर्म की उपशमना या क्षपणा करते-करते है, जो 'क्षपक' श्रेणी को चाहता है। क्षपक श्रेणी अन्य अनेक कर्मों का भी 'उपशमन' या 'क्षपण' के बिना 'मोक्ष' प्राप्त नहीं होता है। यह गुणकरते हैं।
स्थान उपशम श्रेणी को करने वाला है। उपशमक आठवें और नौवें गुणस्थानों में यद्यपि 'विशुद्धि' का पतन अवश्यम्भावी होता है। होती रहती है। फिर भी प्रत्येक जीव की अपनी- इस गुणस्थान का यदि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अपनी विशेषताएँ होती हैं । जैसे कि आठवें गुण- समय पूरा न हो, और आयु-क्षय से जीव 'मरण' स्थान में सम-समयवर्ती कालिक अनन्त जीवों के को प्राप्त होने से गिरता है तो अनुत्तर-विमान अध्यवसायों का, 'समान-शुद्धि' होने के कारण एक में 'देव'-रूप में उत्पन्न होता है । देवों के ही 'वर्ग' होता है। नौवें गुणस्थान में विशुद्धि 'पाँचवें'-आदि गुणस्थान नहीं होते। प्रथम
इतनी अधिक हो जाती है कि उसके अध्यवसायों चार गुणस्थान होते हैं। अतः उक्त प्रकार न को भिन्नताएँ आठवें गणस्थान के अध्यवसायों को का जीव, चौथे गणस्थान को प्राप्त करके, उस lik CM भिन्नताओं से बहुत कम हो जाती है।
गुणस्थान में, उन समस्त कर्म-प्रकृतियों का बन्ध१०. सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान-इस गुणस्थान आदि करना आरम्भ कर देता है, जिन कर्म-प्रकृ५ में 'सम्पराय' अर्थात्-लोभ-कषाय के सूक्ष्म-खण्डों तियों के बन्ध, उदय, उदीरणा की सम्भावना उस र
का ही उदय होने से इसे 'सूक्ष्म-सम्पराय' गुणस्थान गुणस्थान में होती है । यदि आयु-शेष रहते, गुण- 10) कहते हैं।
स्थान का समय पूरा हो जाने पर, कोई जीव, इस गुणस्थानवी जीव के भो दो प्रकार- अपने गुणस्थान से गिरता है, तो, आरोहण क्रम ा 'उपशमक' और 'क्षपक' होते हैं । 'लोभ' के अलावा के अनुसार, जिन गणस्थानों को प्राप्त करते हुए IA 'चारित्र-मोहनीय' कर्म की, कोई दूसरी ऐसी जिन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि का प्रकृति नहीं होती, जिसका उपशमन या क्षपण न विच्छेद उसने किया था, उनको, पतन के समय से हो चुका हो । अतः 'उपशमक' लोभ का उपशमन, सम्बद्ध गुणस्थान-सम्बन्धी-प्रकृतियों के बन्ध, उदय
का क्षपण, इस श्रेणी में करके आदि को, अवरोह-क्रम से. पुनः प्रारम्भ कर देता || SH 'यथाख्यात'-चारित्र से कुछ ही न्यून रह जाते हैं। है । गुणस्थान का काल समाप्त हो जाने से गिरने । अर्थात् उनमें यथाख्यात-चारित्र के प्रकट होने में वाला कोई जीव छठे गुणस्थान में, कोई पाँचवें कुछ ही कमी रह जाती है।
__ गुणस्थान में, कोई चौथे गुणस्थान में और कोई ११. उपशान्तमोह गुणस्थान-इस गुणस्थान दूसरे गुणस्थान में होकर पहले गुणस्थान तक आ का पूरा नाम 'उपशान्त-कषाय-वीतराग-छद्मस्थ' जाता है। गुणस्थान है । जिनके 'कषाय' उपशान्त हो गये हैं, १२. क्षीणमोह गुणस्थान-मोहनीय कर्म का 'राग' का सर्वथा उदय नहीं है और जिनको 'छद्म'- सर्वथा क्षय होने के पश्चात् ही यह गुणस्थान प्राप्त आवरणभूत घाति-कर्म लगे हैं, वे जीव 'उपशान्त होता है। इस गुणस्थान का पूरा नाम 'क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ' हैं। इन्हीं के स्वरूप- कषाय वीतराग छद्मस्थ' गुणस्थान है। इसका विशेष को उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ अर्थ यह हुआ कि जो जीव, मोहनीय-कर्म का गुणस्थान कहते हैं।
सर्वथा क्षय कर चुके हैं, किन्त 'छदम' (घातिकर्म इस गुणस्थान में वर्तमान जीव आगे के गुण- का आवरण) अभी भी विद्यमान है, उनको 'क्षीणतृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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कषायवीतराग' कहते हैं और उनके स्वरूप - विशेष को 'क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ' गुणस्थान कहते हैं ।
मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से इस गुणस्थानवर्ती जीव के भाव स्फटिक मणि के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान विमल होते हैं । इस गुणस्थान से 'पतन' नहीं होता है । क्योंकि, इसमें वर्तमान जीव 'क्षपक' श्रेणी वाले ही होते हैं । 'पतन' का कारण 'मोहनीय' कर्म है । किन्तु यहाँ उसका सर्वथा — निःशेष रूप से क्षय हो चुका है ।
इस गुणस्थान तक, आत्म-गुणों के घातककर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से 'योग - निमित्तक'कर्मावरण शेष रह जाता है । इसी की अपेक्षा से 'सयोगि केवली' नामक तेरहवाँ और 'योग' का सम्बन्ध न रहने पर होने वाला 'अयोगि केवली' नामक चौदहवाँ गुणस्थान सम्भव होता है । इनका स्वरूप निर्दिष्ट करने से पहले, कर्मक्षय की विशेष प्रक्रिया रूप 'उपशम' श्रेणी और 'क्षपक' श्रेणी का निर्देश संक्षेप में यहाँ करना उचित होगा ।
यह उपशमन इस क्रम से होता है - सर्वप्रथम 'नपुंसक वेद', पश्चात् क्रमशः 'स्त्रीवेद', 'हास्य- 1 आदि षट्क", पुरुषवेद, अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण क्रोधयुगल, संज्वलनक्रोध, अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण- मानयुगल, संज्वलमान, अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण- मायायुगल, संज्वलनमाया, अप्रत्याख्यानावरण- प्रत्याख्यानावरण लोभयुगल को, तथा दशवें गुणस्थान में संज्वनल-1 लोभ को उपशमित करता है । इस प्रकार से मोहनीय कर्म के सर्वांशतः उपशमित हो जाने से इस श्रेणी को 'उपशमक' श्रेणी कहते हैं ।
क्षपक श्रेणी -- इस श्रेणी का आरोहक जीव चौथे से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में, सबसे पहले अनन्तानुबन्धी कषाय- चतुष्क और दर्शनमोह त्रिक, इन सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय करता है । अनन्तर, आठवें गुणस्थान में अप्रख्यानावरण- क्रोधादि कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि कषाय चतुष्क, इन आठ कर्म प्रकृतियों के क्षय को प्रारम्भ करता है । जब तक ये आठ प्रकृतियाँ 'क्षय' नहीं हो पातीं कि बीच में
उपशम श्र ेणी - इस श्रेणी के प्रारम्भ होने का ही नौवें गुणस्थान के प्रारम्भ में, स्त्यानद्धि- त्रिकक्रम, संक्षेप में निम्नलिखित प्रकार है
आदि सोलह अशुभ प्रकृतियों का क्षय कर डालता है और फिर अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण कषाय अष्टक के शेष रहे अंश का क्षय करता है ।
गुणस्थान के अन्त में क्रम से नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य-पट्क, पुरुषवेद, संज्वलन- क्रोध-मानमाया का क्षय करता है । अन्त में, दशवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ का भी क्षय कर देता है । इस प्रकार सम्पूर्ण मोहनीय तथा साथ में कतिपयअशुभ प्रकृतियों का क्षय होने से इसे क्षपक श्रेणी कहते हैं ।
चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें गुणस्थान में से किसी भी गुणस्थान वर्तमान जीव, पहले अन'न्तानुबन्धी 'क्रोध' आदि चार कषात्रों का उपशम करता है । तदनन्तर, अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व मोहनीय, सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोह नीय रूप दर्शनमोहनीय त्रिक का एक साथ उपशमन करता है । इसके बाद वह जीव छठे और सातवें गुणस्थान में अनेक बार आता-जाता रहता है । अनन्तर आठवें गुणस्थान में होता हुआ नौवें गुणस्थान को प्राप्त करके, वहाँ चारित्र मोहनीय कर्म की शेष प्रकृतियों का उपशमन करना प्रारम्भ कर देता है ।
१ हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा इन छः नोकषायों की 'हास्यषट्क' यह संज्ञा है ।
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'उपशमक' और 'क्षपक' श्रेणी में विशेषता यह है कि उपशमक श्र ेणी में सिर्फ मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ उपशमित होती हैं, जो निमित्त मिलने
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पर पुनः अपना प्रभाव प्रदर्शित करती हैं । जिससे पतन होने पर पहले मिथ्यात्व गुणस्थान तक की ) प्राप्ति शक्य है । लेकिन क्षपक श्र ेणी में मोहनीय कर्म का तो सर्वथा क्षय होता ही है, उसके साथ उन कुछ प्रकृतियों का भी क्षय हो जाता है जो अशुभ वर्ग की हैं। जिससे चतुर्थ गुणस्थान में देखे गये परमात्मस्वरूप की स्पष्ट प्रतीति-दर्शन होने लगते हैं। शेष रह गये 'छद्म' - घातिकर्म, इतने निःशेष हो जाते हैं कि क्षणमात्र में उनका क्षय होने पर, आत्मा स्वयं परमात्म दशा को प्राप्त कर जीवन्मुक्त अवस्था में स्थित हो जाती है ।
कर्म
और
१३. सयोगिकेवली गुणस्थान - मोहनीय के माथ शेष - 'ज्ञानावरण' - 'दर्शनावरण' 'अन्तराय' इन तीन घाति — कर्मों का क्षय करके 'केवलज्ञान', 'केवलदर्शन' प्राप्त कर चुकने से पदार्थों को जानने-देखने में 'इन्द्रिय' - 'आलोक' आदि की अपेक्षा जो नहीं रखते, तथा योग - सहित हैं, उन्हें 'सयोगि केवली' कहते हैं, और उनके स्वरूपविशेष को 'सयोगि केवली' गुणस्थान कहते हैं ।
योगिकेवली भगवान् 'मनोयोग' का उपयोग १ मन द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर मन द्वारा देने में करते हैं । उपदेश देने के लिए 'वचन' योग का, तथा हलन चलन आदि क्रियाओं में 'काय' योग का उपयोग करते हैं ।
सयोगिकेवली यदि ‘तीर्थङ्कर' हों, तो 'तीर्थ' की 'स्थापना' एवं 'देशना' द्वारा तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं ।
६४. अयोगिकेवली गुणस्थान - जो केवली भगवान् मन, वचन, काय के योगों का निरोध कर, योगरहित हो शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, वे 'अयोगिकेवली' कहलाते हैं । इन्हीं के स्वरूप विशेष को ‘अयोगिकेवली' गुणस्थान कहते हैं ।
योग-निरोध का क्रम इस प्रकार है - सर्वप्रथम बादर (स्थूल) काययोग से बादर मनोयोग और
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वचनयोग को रोकते हैं । अनन्तर सूक्ष्म काययोग से उक्त बादरयोग को रोकते हैं । इसी सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग और वचनयोग को रोकते हैं । अन्त में, सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान के बल से उस सूक्ष्म काययोग को भी रोक देते हैं इस प्रकार से, योगों का निरोध होने से, 'सयोगिकेवली' भगवान् ' अयोगिकेवली' बन जाते हैं । साथ ही उसी सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति शुक्लध्यान की सहायता से अपने शरीर के भीतरी खाली भागमुख, उदर आदि भाग को, आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं । उनके आत्मप्रदेश इतने सघन हो जाते हैं कि वे शरीर के दो तिहाई हिस्से में समा जाते हैं । इसके बाद, समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाती शुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं और 'पाँच ह्रस्व-अक्षर' (अ-इउ ऋ लृ ) के उच्चारण काल का 'शैलेशीकरण' करके चारों अघाति कर्मों - वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु कर्मों का सर्वथा क्षय करने पर, समयमात्र की ऋजुगति से ऊर्ध्वगमन करके 'लोक' के अग्रभाग में स्थित 'सिद्धक्ष ेत्र' में चले जाते हैं ।
लोक के अग्रभाग में विराजमान ये 'सिद्ध' भगवन्त, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों, राग-द्व ेष आदि भावकर्मों से रहित होकर, अनन्त शांति सहित ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अव्याबाध- अवगाहनत्व, नित्य, कृतकृत्य अवस्था में अनन्तकाल तक रमण करते रहते हैं । सर्वथा कर्मबन्ध का अभाव हो जाने से पुनः संसार परिभ्रमण के चक्कर में उनका आगमन नहीं होता है ।
यदि किसी सयोगिकेवली भगवान् की आयुवेदनीय, नाम तथा गोत्र, इन तीन कर्मों की स्थिति कर्म की स्थिति दलिक कम हो, और उसकी अपेक्षा एवं पुद्गल परमाणु अधिक होते हैं, वे आठ समय वाले 'केवली- समुद्घात' के द्वारा आयुकर्म की स्थिति एवं पुद्गलपरमाणुओं के बराबर वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म की स्थिति व पुद्गलपरमाणुओं को कर लेते हैं । परन्तु जिन केवलियों के वेदनीय आदि तीनों अघाति- कर्मों को स्थिति और पुद्गल परमाणु
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________________ ISROAD 'आयुकर्म' के बराबर हैं, वे 'समुद्घात' नहीं करते इन्हें प्राप्त कर लेने के पश्चात् जीव का पतन नहीं हैं / और, परम-निर्जरा के कारणभूत तथा लेश्या से होता है। पहले, चौथे, सातवें, आठवें, नौवें, दशवें, रहित अत्यन्त स्थिरता रूप ध्यान के लिये पूर्वोक्त बारहवें, तेरहवें और चौदहवें, इन नो गुणस्थानों रीति से योगों का निरोध कर अयोगि अवस्था को 'मोक्ष' जाने से पूर्व, जीव अवश्य ही स्पर्श प्राप्त करते हैं। करता है / दूसरा गुणस्थान, अधःपतनोन्मुख-आत्मा गुणस्थानों की शाश्वतता-अशाश्वतता-उक्त की स्थिति का द्योतक है। लेकिन, पहले की अपेक्षा KC चौदह गुणस्थानों में से प्रथम, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और इस गुणस्थान में 'आत्मशुद्धि' अवश्य कुछ अधिक त्रयोदशम् ये पाँच गुणस्थान लोक में 'शाश्वत' / होती है। इसलिए इसका क्रम, पहले के बाद रखा अर्थात् सदा विद्यमान रहते हैं / इन गुणस्थानों वाले . गया है / परन्तु इस गुणस्थान को 'उत्क्रांति' करने जीव, लोक में अवश्य पाये जाते हैं। जबकि शेष नौ वाली कोई आत्मा, प्रथम गुणस्थान से निकल कर गुणस्थास 'अशाश्वत' हैं। 'पर-भव' में जाते समय " सीधे ही, तीसरे गुणस्थान को प्राप्त कर सकती है। जीव को पहला, दूसरा और चौथा, ये तीन गण- और 'अवक्रांति' करने वाली कोई आत्मा, चतुर्थ स्थान होते हैं। तीसरा, बारहवां और तेरा .ये आदि गुणस्थान से पतित होकर, तीसरे गूणस्थान तीन गुणस्थान 'अमर' हैं। अर्थात, इनमें जीव का को प्राप्त कर सकती है। इस प्रकार 'उत्क्रांति' मरण नहीं होता है। पहला, दसरा, तीसरा, पांचवां और 'अवक्रांति' करने वाली दोनों ही प्रकार की और ग्यारहवां, इन पाँच गुणस्थानों का, तीर्थंकर आत्माओं का आश्रयस्थान 'तीसरा' गुणस्थान है। स्पर्श नहीं करते है। चौथे, पांचवे, छठे, सातवें, संक्षेप में, गुणस्थान-क्रमारोहण का स्वरूप यही आठवें, इन पाँच गुणस्थानों में ही जीव 'तीर्थकर'- समझना चाहिए। गोत्र को बाँधता है। बारहवां, तेरहवाँ और चौदहवाँ, ये तीन गुणस्थान 'अप्रतिपाती' हैं। अर्थात् -0 आत्मा के तीन प्रकार तिप्पयारो सो अप्पो पर-मन्तर बाहिरो दु हेऊणं / आत्मा के तीन प्रकार हैं-बहिरात्मा, अन्तरात्सा और परमात्मा / बहिरात्मा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मा की ओर बढ़ना-ऊर्ध्वारोहण है / -मोक्ष पाहुड 4 तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन - साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ PROrprivate Personalitice-Only