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यह होता है कि उसे सर्वज्ञ के वचन पर 'सम्यग्दृष्टि' की तरह अखण्ड अटूट विश्वास नहीं होता है ।
२. सासादन गुणस्थान – जो औपशमिक सम्यक्त्वी जीव, अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से 'सम्यक्त्व' को छोड़कर 'मिथ्यात्व' की ओर झुक रहा है, किन्तु अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है, ऐसे जीव के स्वरूप - विशेष को 'सासादन- सम्यग्दृष्टि कहते हैं । अर्थात्, जिस प्रकार पर्वत से गिर कर नीचे की ओर आते व्यक्ति की भूमि पर पहुँचने से पहले, मध्यकालवर्ती जो दशा होती है, वह न तो पर्वत पर ठहरने की स्थिति है, न ही भूमि पर स्थित होने की, बल्कि दोनों -स्थितियों से रहित, 'अनुभय दशा' होती है । इसी प्रकार, अनन्तानुबंधी कषायों का उदय होने के कारण, 'सम्यक्त्व-परिणामों से छूटने' और 'मिथ्यात्व - परिणामों के प्राप्त होने' के मध्य की अनुभयकालिक - स्थिति में जो जीव- परिणाम होते हैं, उन्हें बतलाने वाली जीवदशा का नाम है - 'सासादन- गुणस्थान' |
३. मिश्रगुणस्थान- इस गुणस्थान का पूरा नाम है - 'सम्यग् - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान' । इसी का संक्षिप्त नाम है 'मिश्रगुणस्थान' ।
मिथ्यात्व - मोहनीय के 'अशुद्ध' – 'अर्धशुद्ध' और 'शुद्ध', इन तीन पुँजों में से अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय न होने से, 'शुद्धता' और 'मिथ्यात्व' अर्धशुद्धपुद्गलों का उदय होने से जब अशुद्धतारूप अर्धशुद्ध पुंज का उदय होता है, तब जीव की दृष्टि कुछ 'सम्यक्' (शुद्ध) और कुछ 'मिथ्या' (अशुद्ध) अर्थात् - 'मिश्र' हो जाती है ।
इस गुणस्थान दशा के समय, बुद्धि में दुर्बलता सी आ जाती है । जिससे जीव सर्वज्ञ प्रणीत तत्त्वों पर न तो 'एकान्त-रुचि' करता है, और न 'एकान्तअरुचि' | किन्तु, मध्यस्थ भाव रखता है । इस प्रकार की दृष्टि वाले जीव का स्वरूप- विशेष 'सम्यग् मिथ्यादृष्टि' (मिश्र) गुणस्थान कहलाता है ।
इस गुणस्थान की यह विशेषता है कि सम्यग् मिथ्यादृष्टि जीव, न तो परभव की आयु का बन्ध
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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करता है, और न 'मरण' को प्राप्त होता है । इस गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं हो सकता है और न ही वह 'संयम' ('सकल संयम' या 'देशसंयम' ) ग्रहण कर सकता है ।
४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- 'हिंसा' आदि सावद्य - व्यापारों के त्याग को 'विरति' कहते हैं । अतएव, जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर भी किसी प्रकार की 'विरति ' - 'व्रत' को धारण नहीं कर सकता, वह जीव 'अविरत सम्यग्दृष्टि' होता है । इसी के स्वरूप - विशेष को 'अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान' कहते हैं ।
इस गुणस्थानवर्ती जीव को अविरत सम्यग्दृष्टि कहने का कारण यह है कि सम्यग्दर्शन होने पर भी 'एकदेश संयम' की घातक 'अप्रत्याख्यानावरण' कषाय का उदय उसमें रहता है । इस तरह के जीवों में कोई जीव 'ओपशमिक' कोई 'क्षायोपशमिक' और कोई 'क्षायिक' सम्यक्त्वी होते हैं ।
५. देश विरतगुणस्थान - 'सकल संयम' की घातक कषाय का उदय होने के कारण, जो जीव सर्वसावद्य क्रियायों से सर्वथा तो नहीं, किंतु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न होने से 'देश (अंश) से, पापजनक क्रियाओं से 'विरत' - 'पृथक्' हो सकते हैं, वे 'देशविरत' हैं। इन जीवों के स्वरूपविशेष को 'देशविरत' - गुणस्थान कहते हैं। देशविरत को 'श्रावक' भी कहते हैं ।
इस गुणस्थानवर्ती कोई जीव, एक व्रत लेते हैं, कोई दो व्रत, कोई तीन-चार-पाँच आदि बारह व्रत तक लेते हैं । ये व्रत 'अणुव्रत' 'गुणव्रत' और 'शिक्षा व्रत' इन तीन विभागों में विभाजित हैं । कोई जीव श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को धारण करते हैं । इस प्रकार, अधिक से अधिक व्रतों का पालन करने वाले श्रावक ऐसे भी होते हैं, जो पापकर्मों में अनुमति के सिवाय, परिवार से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखते हैं ।
६. प्रमत्त संयत गुणस्थान- जो व्यक्ति, पापजनक व्यापारों से विधिपूर्वक सर्वथा निवृत्त हो जाते
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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