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________________ के अभेद' को, और वेदान्त आदि दर्शनों में 'अविद्या' को, संसार के कारण रूप में बतलाया गया है । ये सभी शाब्दिक भेद से राग-द्वेष के ही अपर नाम हैं । इन राग-द्वेषों के उन्मूलक साधन ही मोक्ष के कारण हैं । इसी दृष्टि से, जैन- शास्त्रों में मोक्ष प्राप्ति के तीन साधन ( समुदित ) बताये हैं- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । कहीं-कहीं 'ज्ञान' और 'क्रिया' को मोक्ष का साधन कहा है । ऐसे स्थानों पर, 'दर्शन' को 'ज्ञान' का विशेषण समझकर उसे ज्ञान में गर्भित कर लेते हैं। इसी बात को वैदिक - दर्शनों में 'कर्म', 'ज्ञान', 'योग' और 'भक्ति' इन चार रूपों में कहा है। लेकिन, संक्षेप और विस्तार अथवा शब्द - भिन्नता के अतिरिक्त आशय में अन्तर नहीं है । जैनदर्शन में जिसे 'सम्यक्चारित्र' कहा है, उसमें 'कर्म' और 'योग' दोनों का समावेश हो जाता है। क्योंकि 'कर्म' और 'योग' के जो कार्य हैं, उन 'मनोनिग्रह', 'इन्द्रिय जय', 'चित्त शुद्धि' एवं 'समभाव' का तथा उनके लिए किये जाने वाले उपायों का भी, 'सम्यक्चारित्र' के क्रिया रूप होने से, उसमें समावेश हो जाता है । 'मनोनिग्रह' 'इन्द्रिय जय' आदि 'कर्ममार्ग' है । 'चित्त शुद्धि' और उसके लिए की जाने वाली सत्प्रवृत्ति 'योगमार्ग' है । सम्यग्दर्शन 'भक्तिमार्ग' है । क्योंकि 'भक्ति' में 'श्रद्धा' का अंश प्रधान है और 'सम्यग् - दर्शन' श्रद्धारूप ही है । सम्यग्ज्ञान 'ज्ञानमार्ग' रूप ही है । इस प्रकार से, सभी दर्शनों में, मुक्ति-कारणों के प्रति एकरूपता है । इन कारणों का अभ्यास / आचरण करने से जीव 'मुक्त' होता है । गुणस्थान / भूमिका / अवस्था - जिन आस्तिक दर्शनों में संसार और मुक्ति के कारणों के प्रति मतैक्य है, उन दर्शनों में आत्मा, उसका पुनर्जन्म, उसकी विकासशीलता तथा मोक्षयोग्यता के साथ किसी न किसी रूप में, आत्मा के क्रमिक विकास का विचार पाया जाना स्वाभाविक है । क्योंकि विकास की प्रक्रिया, उत्तरोत्तर अनुक्रम से वृद्धिंगत होती है । सुदीर्घ मार्ग को क्रमिक पादन्यास से ही पार किया जाना शक्य है । इसी दृष्टि से, विश्व के प्राचीनतम, तीन दर्शनों-जैन, वैदिक एवं बौद्ध में, उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है । यह विचार, जैनदर्शन में 'गुणस्थान' नाम से, वैदिक दर्शन में 'भूमिका' नाम से, और बौद्ध दर्शन में 'अवस्था' नाम से प्रसिद्ध है । Jain Education International यद्यपि, आत्मा के मौलिक गुणों के क्रमिक विकास का दिग्दर्शन कराने के लिए 'गुणस्थान' के नाम से जैसा सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन जैनदर्शन में किया गया है, वैसा, सुनियोजित क्रमबद्ध एवं स्पष्ट विचार, अन्य दर्शनों में नहीं है । तथापि, वैदिक और बौद्धदर्शनों के कथनों की, जैनदर्शन के साथ आंशिक समानता है । इसीलिए, गुणस्थानों का विचार करने से पूर्व, वैदिक और बौद्धदर्शन के विचारों का अध्ययन संकेत भर यहाँ करना उचित है । वैदिक दर्शनों में आत्मा की भूमिकाएं - वैदिक दर्शन के पातंजल योगसूत्र' में और 'योगवाशिष्ठ' में भी, आध्यात्मिक भूमिकाओं पर विचार किया गया है । पातंजल योगसूत्र में इन भूमिकाओं के नाम - मधुमती, मधुप्रतीका, विशोका और संस्कारशेषा उल्लिखित । जबकि योगवाशिष्ठ में 'ज्ञान' एवं 'अज्ञान' नाम के दोनों विभागों के अन्तर्गत सात-सात भूमिकाएँ, कुल चौदह भूमिकाएँ उल्लि खित हैं । इनके वर्णन के प्रसंग में, ऐसी बहुत-सी बातों के संकेत हैं, जिनकी समानता, जैनदर्शनसम्मत अभिप्रायों के साथ पर्याप्त मिलती-जुलती है । उदाहरण के लिए, जैन शास्त्रों में 'मिथ्यादृष्टि' या 'बहिरात्मा' के रूप में, अज्ञानी जीव का जो लक्षण बतलाया गया है, वही लक्षण, योग १ आत्मधिया समुपात्तकायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा । - योगशास्त्र, प्रकाश - १२ २५० तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210223
Book TitleAtma ke Maulik Guno ki Vikas Prakriya ke Nirnayak Gunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages16
LanguageHindi
ClassificationArticle & Soul
File Size2 MB
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