Book Title: Atma ke Maulik Guno ki Vikas Prakriya ke Nirnayak Gunsthan
Author(s): Ganeshmuni
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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पर पुनः अपना प्रभाव प्रदर्शित करती हैं । जिससे पतन होने पर पहले मिथ्यात्व गुणस्थान तक की ) प्राप्ति शक्य है । लेकिन क्षपक श्र ेणी में मोहनीय कर्म का तो सर्वथा क्षय होता ही है, उसके साथ उन कुछ प्रकृतियों का भी क्षय हो जाता है जो अशुभ वर्ग की हैं। जिससे चतुर्थ गुणस्थान में देखे गये परमात्मस्वरूप की स्पष्ट प्रतीति-दर्शन होने लगते हैं। शेष रह गये 'छद्म' - घातिकर्म, इतने निःशेष हो जाते हैं कि क्षणमात्र में उनका क्षय होने पर, आत्मा स्वयं परमात्म दशा को प्राप्त कर जीवन्मुक्त अवस्था में स्थित हो जाती है ।
कर्म
और
१३. सयोगिकेवली गुणस्थान - मोहनीय के माथ शेष - 'ज्ञानावरण' - 'दर्शनावरण' 'अन्तराय' इन तीन घाति — कर्मों का क्षय करके 'केवलज्ञान', 'केवलदर्शन' प्राप्त कर चुकने से पदार्थों को जानने-देखने में 'इन्द्रिय' - 'आलोक' आदि की अपेक्षा जो नहीं रखते, तथा योग - सहित हैं, उन्हें 'सयोगि केवली' कहते हैं, और उनके स्वरूपविशेष को 'सयोगि केवली' गुणस्थान कहते हैं ।
योगिकेवली भगवान् 'मनोयोग' का उपयोग १ मन द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर मन द्वारा देने में करते हैं । उपदेश देने के लिए 'वचन' योग का, तथा हलन चलन आदि क्रियाओं में 'काय' योग का उपयोग करते हैं ।
सयोगिकेवली यदि ‘तीर्थङ्कर' हों, तो 'तीर्थ' की 'स्थापना' एवं 'देशना' द्वारा तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं ।
६४. अयोगिकेवली गुणस्थान - जो केवली भगवान् मन, वचन, काय के योगों का निरोध कर, योगरहित हो शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, वे 'अयोगिकेवली' कहलाते हैं । इन्हीं के स्वरूप विशेष को ‘अयोगिकेवली' गुणस्थान कहते हैं ।
योग-निरोध का क्रम इस प्रकार है - सर्वप्रथम बादर (स्थूल) काययोग से बादर मनोयोग और
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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वचनयोग को रोकते हैं । अनन्तर सूक्ष्म काययोग से उक्त बादरयोग को रोकते हैं । इसी सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग और वचनयोग को रोकते हैं । अन्त में, सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति शुक्लध्यान के बल से उस सूक्ष्म काययोग को भी रोक देते हैं इस प्रकार से, योगों का निरोध होने से, 'सयोगिकेवली' भगवान् ' अयोगिकेवली' बन जाते हैं । साथ ही उसी सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति शुक्लध्यान की सहायता से अपने शरीर के भीतरी खाली भागमुख, उदर आदि भाग को, आत्मप्रदेशों से पूर्ण कर देते हैं । उनके आत्मप्रदेश इतने सघन हो जाते हैं कि वे शरीर के दो तिहाई हिस्से में समा जाते हैं । इसके बाद, समुच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपाती शुक्लध्यान को प्राप्त करते हैं और 'पाँच ह्रस्व-अक्षर' (अ-इउ ऋ लृ ) के उच्चारण काल का 'शैलेशीकरण' करके चारों अघाति कर्मों - वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु कर्मों का सर्वथा क्षय करने पर, समयमात्र की ऋजुगति से ऊर्ध्वगमन करके 'लोक' के अग्रभाग में स्थित 'सिद्धक्ष ेत्र' में चले जाते हैं ।
लोक के अग्रभाग में विराजमान ये 'सिद्ध' भगवन्त, ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों, राग-द्व ेष आदि भावकर्मों से रहित होकर, अनन्त शांति सहित ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, अव्याबाध- अवगाहनत्व, नित्य, कृतकृत्य अवस्था में अनन्तकाल तक रमण करते रहते हैं । सर्वथा कर्मबन्ध का अभाव हो जाने से पुनः संसार परिभ्रमण के चक्कर में उनका आगमन नहीं होता है ।
यदि किसी सयोगिकेवली भगवान् की आयुवेदनीय, नाम तथा गोत्र, इन तीन कर्मों की स्थिति कर्म की स्थिति दलिक कम हो, और उसकी अपेक्षा एवं पुद्गल परमाणु अधिक होते हैं, वे आठ समय वाले 'केवली- समुद्घात' के द्वारा आयुकर्म की स्थिति एवं पुद्गलपरमाणुओं के बराबर वेदनीय, नाम और गोत्रकर्म की स्थिति व पुद्गलपरमाणुओं को कर लेते हैं । परन्तु जिन केवलियों के वेदनीय आदि तीनों अघाति- कर्मों को स्थिति और पुद्गल परमाणु
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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