Book Title: Ashtmangal Aishwarya
Author(s): Jaysundarsuri, Saumyaratnavijay
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 26
________________ 3.2 अर्वाचीन नंद्यावर्तः स्वस्तिक का ही एक विशेष विकसित स्वरुप जिस में नौ कोनेकी संकल्पना है, वह है अर्वाचीन नंद्यावर्त। आबु-देलवाडा तथा कुंभारीया के प्राचीन मंदिरों में वह सबसे पहले देखा जाता है। 18-19वीं सदी के मंदिरों में रंगमंडप की फ्लोरींग में ज्यादातर मध्य में अर्वाचीन नंद्यावर्त किया गया है। उदा. अमदावाद का शेठ हठीसिंह का देहरा। नंद्यावर्त के नौ कोने को नवनिधि के प्रतीक माने गये हैं। नंद्यावर्त में स्वस्तिक के चार छोर घुमाव ले कर बाहर निकलते है। चार गतिरुप संसार भँवरों से भरा हुआ है, उसमें से प्रचंड पुरुषार्थ के द्वारा बाहर निकलने का संदेश नंद्यावर्त देता है। 3.3 प्राचीन नंद्यावर्तः 'नंद्यावर्तो महामत्स्यः' - ऐसा कहते हुए कोशग्रंथो में नंद्यावर्त को महामत्स्य की उपमा दी गई है। प्राचीन नंद्यावर्त की सभी चार भुजा-बाजूओं मछली के उत्तरांग अर्थात् मुख के पीछे के भाग जैसी बताई गई होने से प्राचीन नंद्यावर्त की यह उपमा सार्थक होती है। कोशकारों नंद्यावर्त को जलचर महामत्स्य या अष्टापद या मकडी अथवा 'तगर' के फूल की आकृति समान गिनते है। ‘अष्टापद' नाम के पशु के पाद(पाँव)या पंखुडीयाँ घुमावदार होने के कारण, वह उपमान के आधार पर प्राचीन नंद्यावर्त के स्वरूप का निर्णय कर सकते है। प्राचीन साहित्यिक उद्धरणों के आधार पर नंद्यावर्त का प्राचीन स्वरूप हमने दर्शाया है। मथुरा के कंकाली टीला की खुदाई के समय प्राप्य जैन आयागपट्टो में तथा अन्यत्र भी प्राचीन में जहाँ अष्टमंगल का उत्कीरण किया गया है उसमें प्राचीन नंद्यावर्त देखा जाता है। मथुरा के आयागपट्ट में नंद्यावर्त के प्राचीन स्वरुप का स्पष्ट और सुंदर स्वरूप देखने को मिलता है। SSS

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