Book Title: Ashtadhyayi Padanukram Kosh
Author(s): Avanindar Kumar
Publisher: Parimal Publication

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Page 11
________________ एक प्रमुख परम्परा के रूप में विकसित हो चुका था। काशकृत्स्न, आपिशलि और शाकटायन इसी परम्परा के पोषक थे । ऐन्द्र परम्परा का उत्तरकालीन विकास काशकृत्स्न, आपिशलि, शाकटायन आदि आचार्यों के माध्यम से होता हुआ कातन्त्र व्याकरण के रूप में हुआ। प्रत्याहार-पद्धति के आविष्कार से संस्कृत-व्याकरण-परम्परा में क्रान्ति आ गई । इस पद्धति का आविष्कर्ता कौन है, इस बारे में कुछ निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता किन्तु पाणिनि अपने व्याकरण में इस प्रत्याहार-पद्धति का जितना वैज्ञानिक उपयोग करता है, उतना किसी भी पाणिनिपूर्व व्याकरण में दृष्टिगोचर नहीं होता। अनुश्रुति है कि पाणिनि ने जिन प्रत्याहार-सूत्रों का उपदेश किया है, वे सूत्र महेश्वरद्वारा पाणिनि को प्रदत्त माने जाते हैं। पाणिनि से पूर्व वर्गों के वर्गीकरण के सम्बन्ध में दो परम्पराएँ प्रतिष्ठित थीं। एक परम्परा ऐन्द्र व्याकरण और प्रातिशाख्यों से सम्बद्ध थी और दूसरी परम्परा माहेश्वर सूत्रों से सम्बद्ध थी। ऐन्द्र और प्रातिशाख्यों के वर्णसमाम्नाय में अकारादिक्रम से स्वरव्यंजनादि का पाठ किया जाता था और व्यञ्जनों का क्रम भी कण्ठ्य-तालव्य-मूर्धन्यादि वर्गक्रम के अनुसार ही रखा जाता था । ऐन्द्र व्याकरण और प्रातिशाख्यों का उद्देश्य वर्णध्वनियों के उच्चारण का वैज्ञानिक अध्ययन था। माहेश्वर सूत्र-पद्धति का उद्देश्य वोच्चारण का वैज्ञानिक अध्ययनन होकर वर्णों का वैज्ञानिक वर्गीकरण था। माहेश्वरसत्रपद्धति में जिस वर्णसमाम्नाय का उपदेश किया जाता है उसमें वर्णध्वनियों के पारस्परिक सम्बन्ध तथा विनिमय को स्पष्ट किया जाता है । माहेश्वर पद्धति के इसी दृष्टिकोण के कारण प्रत्याहारों का जन्म हुआ। - पाणिनि-पूर्व की पूर्वोक्त दोनों परम्पराएँ व्याकरण की दो शाखाओं के रूप में विकसित हुईं । ऐन्द्र परम्परा प्राच्यशाखा के रूप में तथा माहेश्वर परम्परा औदीच्य शाखा के रूप में विकसित हुईं । प्रत्याहारपद्धति का आविष्कार औदीच्य शाखा में ही हुआ, प्राच्य में नहीं । प्राच्यशाखा में प्रत्याहारों का आश्रय न लेकर पूरे-पूरे वर्णों का परिगणन किया गया है । फलतः प्राच्य शाखा के व्याकरण अत्यन्त विस्तृत हो गये । आचार्य पाणिनि औदीच्य शाखा के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में अवतरित हुए और प्रत्याहार-पद्धति को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया। प्रत्याहार-पद्धति संस्कृत-व्याकरण-परम्परा के लिए औदीच्य शाखा की अमूल्य देन है। इसी पद्धति ने पाणिनीय व्याकरण-ग्रन्थ अष्टाध्यायी को इतना लोकप्रिय बनाया कि समस्त पाणिनिपूर्व व्याकरण अप्रासङ्गिक हो गये तथा कातन्त्र, चान्द्र, सारस्वत, हैम, जैनेन्द्र आदि पाणिन्युत्तर व्याकरण भी अष्टाध्यायी के प्रभाव के समक्ष निष्प्रयोजन सिद्ध हुए। संस्कृत-व्याकरण-परम्परा में आचार्य पाणिनि का नाम महोज्ज्वल नक्षत्र के तुल्य देदीप्यमान है। आचार्य पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी के माध्यम से विश्वसाहित्य को जो अमूल्य देन दी, उतनी अमूल्य देन शायद ही किसी ने दी होगी। पाणिनिकृत अष्टाध्यायी लौकिक संस्कृत का प्रथम सर्वाङ्गीण व्याकरण है और इसमें वैदिक संस्कृत का व्याकरण भी दिया गया है । अष्टाध्यायी सूत्रपद्धति में लिखा ग्रन्थ है। अष्टाध्यायी के सूत्रों की सूक्ष्म संरचना में पाणिनि ने जिस मेधा का परिचय दिया है, वह आधुनिक कम्प्यूटर भी कदाचित् ही दे सकता है।

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