Book Title: Ardhamagadhi kosha Part 5 Author(s): Ratnachandra Maharaj Publisher: Motilal Banarasidas View full book textPage 7
________________ ( २ ) समझा । अर्धमागधी के साथ महाराष्ट्री प्राकृत एवं देशी प्राकृत का कोष बन जाने से, प्राकृत साहित्य का एक प्रकार से सर्वाङ्गीण कार्य हो जाता है । अर्धमागधी के बाद महाराष्ट्री प्राकृत का युग शुरु होता है । एक दृष्टि से यों कहना चाहिए कि-अर्धमागधी के साथ साथ ही महाराष्ट्री प्राकृत का भी अस्तित्व उभर रहा था, और इस प्रकार प्राकृत भाषा बहुत प्राचीन काल से ही अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर रही थी। यह भाषा आगे चलकर जब साहित्य भाषा बनी ता, इसमें 'सुपासनाइ चरियं, सुर सुन्दरी चरियं आदि ग्रन्थों की रचना हुई । अब रही देश्य प्राकृत भाषा । यह वह भाषा है, जिसका संस्कृत रूपान्तर नहीं होता। यह भाषा, प्रान्तीय रूढ प्रयोगों द्वारा भौगोलिक स्थिति के कारण बनी मालूम होती है । प्रकृति तथा प्रत्यय आदि का मौलिक विभाजन, इस भाषा में नहीं होता। अतः यह भाषा व्याकरण के धरातल पर नहीं चलती । इस भाषा का आदिकाल काफी पुराना है । आगम साहित्य में भी काफी संख्या में देशी शब्द प्रयुक्त हुए हैं। पूर्व के चार भागों में, अर्धमागधी के साथ साथ आगमों में आने वाले देशी शब्दों को भी स्थान दिया है। क्यों कि -अपना ध्येय, केवल अर्धमागधी भाषा का ही कोष बनाने का नहीं था, साथ में अभ्यासियों के लिए आगमसाहित्य के समस्त शब्द आजायें-- यह ध्येय भी था और इस के लिए देशी शब्दों को स्थान देना ज़रूरी था। प्रस्तुत भाग में अर्धमागधी, महाराष्ट्री प्राकृत और देशी प्राकृत इस प्रकार तीन भाषाओं के शब्दों का संग्रह है । अर्धमागधी खंड में वे ही नये शब्द लिए हैं, जो पहले के चार भागों में लिखने से रह गए थे । प्राकृत खंड में, जो शब्द अर्धमागधी सम थे वे तो पहले के भागों में ही आ गए हैं, अतः उन्हें न लेकर 'सुपासनाह चरियं' आदि ग्रन्थों में से सर्वथा प्राकृत के अपने स्वतंत्र अर्धमागधी भिन्न शब्द ही लिए हैं। देश्य संग्रह में अन्य देशी .म माला आदि ग्रन्थों में से शब्द संग्रह करने के अतिरिक्त पूर्व के चार मागों में आये हुए आगमोक्त देश्य शब्द भी ले लिए हैं। ऐसा करने का उद्देश्य, अभ्यासी वर्ग को एक भाषा का एक ही साथ शब्द संग्रह देख लेने में सुविधा हा जाना है । देश्य शब्दों का इतना अधिक हिशाल संग्रह है नहीं, जिससे कि विस्तार भय के कारण पहले शब्दों को छोड़ कर नया ही शब्द संग्रह किया जाय । पूर्व के चार भागों में शब्दों के साथ-साथ व्याकरण का भी परिचय दिया गया है । अर्थात् धातु, धातुगण, धातुरूप, संबन्धार्थ कृदन्त, हेत्वर्थ कृदन्त, सर्वनाम, रूप आदि यथास्थान बताया गया है, उसका उद्देश्य भविष्य में अर्धमागधी के व्याकरण भाग की पूर्ति कर एक सर्वाङ्ग अर्धमागधी व्याकरण बनाना था। इसके फलस्वरूप 'जैन सिद्धान्त कौमुदी' के नाम से अर्धमागधी का सटीक व्याकरण लाहौर से मेहरचन्द्र लक्ष्मणदास के यहाँ से प्रकाशित भी हो चुका है । परन्तु उक्त भाग के लिए यह बात नहीं थी, अतः इसमें व्याकरण नहीं दिया है । प्राकृत के व्याकरण बहुत बने हुए हैं और वे प्रचलित भी हैं। प्रस्तुत भाग के संपादन में एक पुस्तक से बहुत अधिक सहायता ली गई है, अतः कृतज्ञता के नाते उसका सधन्यवाद नामोल्लेख करना आवश्यक है। जिन दिनों अर्धमागधी का परिशिष्ट तैयार किया जा रहा था, तथैव महाराष्ट्री प्राकृत एवं देश्य प्राकृत के संग्रह का भी संकल्प बंध रहा था; उन्हीं दिनों श्रीमान् पं० हरगोविन्द दास त्रिकमचन्द सेठ न्याय व्याकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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