Book Title: Arddhmagadhi Agam Sahitya me Shrutdevi Sarasvati Author(s): Sagarmal Jain Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 2
________________ जून २००९ से लेकर अन्तर्ध्यान होने तक की कलाएँ हैं, किन्तु कालान्तर में तान्त्रिक प्रभाव के कारण जैनों में सोलह विद्यादेवियों, चौबीस यक्ष-यक्षियों, चौबीस कामदेवों, नव नारदों और ग्यारह रुद्रों, अष्ट या नौ दिक्पाल, लोकान्तिक देवों, नवग्रह, क्षेत्रपाल, चौंसठ इन्द्रों और चौंसठ योगनियों की कल्पना भी आई, किन्तु उपरोक्त जैन देवमण्डल में भी सरस्वती का उल्लेख नहीं है । जैन धर्म में प्रारम्भ में जो सोलह महाविद्याएं मानी गईं थीं, वे भी कालान्तर में चौबीस में सम्मिलित कर ली गई और यह मान लिया गया कि चौबीस तीर्थंकरों के शासन-रक्षक चौबीस यक्ष और चौबीस यक्षणियाँ होती हैं, लेकिन आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि चौबीस शासन देवता या यक्षियों में भी कहीं भी सरस्वती एवं लक्ष्मी का उल्लेख नहीं है । यद्यपि प्राचीन काल से ही जैनों में ये दोनों देवियाँ प्रमुख रही हैं, क्योंकि सर्वप्रथम तीर्थंकरों की माताओं के सोलह या चौदह स्वप्नों में चौथे स्वप्न के रूप में श्री देवी या लक्ष्मी का उल्लेख मिलता है । मात्र इतना ही नहीं, उसके मूलपाठ में एवं उसकी परवर्ती टीकाओं में उसके स्वरूप का विस्तृत विवरण भी है । यद्यपि यहाँ उसकी उपासना विधि की कहीं कोई चर्चा नहीं है । जहाँ तक सरस्वती का प्रश्न है, अर्धमागधी आगम साहित्य में भगवतीसूत्र के पन्द्रहवें शतक के प्रारम्भ में " नमो सुयदेवयाए भगवइए" के रूप में श्रुतदेवी सरस्वती को नमस्कार करने का उल्लेख है । इसी प्रकार भगवतीसूत्र के आद्य मंगल में यद्यपि 'नमो बंभीए लिवीए' कहकर ब्राह्मी लिपि को और 'नमो सुयस्स' कहकर श्रुत को नमस्कार किया गया है, किन्तु वहाँ श्रुतदेवता का उल्लेख नहीं है । भगवतीसूत्र के आद्य मंगल एवं पन्द्रहवें शतक के प्रारम्भ में मध्यमंगल के रूप में, जो श्रुत या श्रुतदेवता (सरस्वती) का उल्लेख है, उसे विद्वानों ने परवर्ती प्रक्षेप माना है, क्योंकि भगवतीसूत्र की वृत्ति में उसकी वृत्ति (टीका) नहीं है । भगवतीसूत्र का वर्तमान में उपलब्ध पाठ वल्लभी वाचना में ही सुनिश्चित हुआ है । यद्यपि भगवतीसूत्र के मूलपाठ में अनेक अंश प्राचीन स्तर के हैं, ऐसा भी विद्वानों ने माना, किन्तु वल्लभीवाचना के समय उसके पाठ में परिवर्तन, प्रक्षेप और विलोपन भी हुए हैं । अतः यह कहना कठिन है, कि भगवतीसूत्र में आद्यमंगल एवं मध्यमंगल के रूप में जो श्रुत या श्रुतदेवता को नमस्कार किया है वह प्राचीन ही होगा । भगवतीसूत्र के प्रारम्भ Jain Education International ६१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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