Book Title: Arddhmagadhi Agam Sahitya me Shrutdevi Sarasvati
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 10
________________ जून २००९ (II) जैनधर्म में सरस्वती हम अपने पूर्व आलेख - "अर्धमागधी आगम साहित्य में श्रुतदेवी सरस्वती" में स्पष्ट रूप से यह देख चुके हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अर्धमागधी आगमों में तथा उनकी नियुक्तियों और भाष्यों तक भी एक देवी के रूप में सरस्वती की अवधारणा अनुपस्थित है । भगवतीसूत्र में सरस्वती (स+रस+वती) पद का प्रयोग मात्र जिनवाणी के विशेषण के रूप में हुआ है और उस जिनवाणी को रस से युक्त मानकर यह विशेषण दिया गया है। यद्यपि उसमें भगवती श्रुतदेवता (सुयदेवयाए भगवइए) के कुछ प्रयोग मिले हैं, परन्तु वे भी जिनवाणी के अर्थ में ही है । जिनवाणी के साथ देवता और भगवती शब्दों का प्रयोग मात्र आदरसूचक हैं। किसी 'देवी' की कल्पना के रूप में नहीं है । श्रुतदेवता (श्रुतदेवी) की कल्पना प्राचीन स्तर के आगमों की अपेक्षा कुछ परवर्ती है। सर्वप्रथम पउमचरियं (ई. २री शती) में ही, श्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी को देवी कहा गया है, जो इन्द्र के आदेश से तीर्थंकर माता की सेवा करती हैं (३/५९) । इसके साथ ही अंगविज्जा (लगभग २री शती) में भी बुद्धि की देवता के रूप में 'सरस्वती' का उल्लेख है। जबकि जैन देवमण्डल, जिसमें सोलह विद्यादेवियाँ, चौबीस यक्ष, चौबीस यक्षियाँ (शासनदेवता), अष्ट या नौ दिक्पाल, चौंसठ इन्द्र, लोकान्तिकदेव, नवग्रह, क्षेत्रपाल (भैरव) और चौंसठ योगनियाँ भी सम्मिलित हैं, कहीं भी सरस्वती का उल्लेख नहीं है। यह आश्चर्यजनक इसलिए है, अनेक हिन्दू देवदेवियों को समाहित करके जैनों ने जिस देवमण्डल का विकास किया था, उसमें श्रुतदेवी सरस्वती को क्यों स्थान नहीं दिया गया ? जबकि मथुरा से उपलब्ध जैन स्तूप की पुरातात्विक सामग्री में विश्व की अभिलेखयुक्त प्राचीनतम जैन श्रुतदेवी या सरस्वती की प्रतिमा प्राप्त हुई है, जिससे इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि ईसा की द्वितीय 'शताब्दी से जैनों में सरस्वती १. एकाणंसा सिरी, बुद्धि मेधा कित्ती सरस्वती एवमादियाओ उवलद्धाओ भवंति । अध्याय ५८, पृ. २२३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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