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अनुसन्धान ४८
की आराधना प्रचलित रही होगी। क्योंकि इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा कोटिकगण की वज्रीशाखा के जैनाचार्य द्वारा हुई है और 'सरस्वती' शब्द का भी उल्लेख है। इसके बाद श्वेताम्बर परम्परा में श्रुतदेवी के रूप में सरस्वती के उल्लेख हरिभद्र (८ वी शती) और उनके बाद आचार्यों के काल से ही मिलते हैं। तीसरी-चौथी शती से लेकर सातवीं तक हमें सरस्वती के उल्लेख नहीं मिले । पंचकल्पभाष्य की टीका में उसे व्यन्तर देवी के रूप में उपस्थित किया गया, जो अधिक सम्मानप्रद नहीं था, किन्तु हरिभद्र ने उसकी उपासना विधि में उसे वैराट्या, रोहिणी, अम्बा, सिद्धायिका, काली आदि शासनदेवियों के समकक्ष दर्जा देकर उसका महत्त्व स्थापित किया है, क्योंकि काली, अम्बा, सिद्धायिका आदि को जैनधर्म में शासनदेवता का सम्मान प्राप्त है । श्वेताम्बर परम्परा में श्रुतदेवी सरस्वती की उपासना-विधि के साहित्यिक प्रमाण लगभग ८ वी शती से मिलने लगते हैं।
जहाँ तक सरस्वती की प्रतिमा के पुरातात्विक प्रमाणों का प्रश्न है, वे प्रथमतया तो मथुरा से उपलब्ध सरस्वती की प्रतिमा के आधार पर ईसा की द्वितीय शती से मिलने लगते हैं, किन्तु जैन परम्परा में बहुत ही सुन्दर सरस्वती प्रतिमाएँ पल्लू (बिकानेर) और लाडनू आदि से उपलब्ध हैं, जो ९वीं, १०वीं शती के बाद की हैं ।
जहाँ तक अचेल दिगम्बर परम्परा का प्रश्न हैं, उसमें भी श्रुतदेवी सरस्वती के उल्लेख पर्याप्त परवर्ती हैं ! कसायपाहुड, षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना, तिलोयपन्नत्ती, द्वादश अनुप्रेक्षा (बारसाणुवेक्खा) एवं कुन्दकुन्द के ग्रन्थ समयसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि में हमें कहीं भी आद्यमंगल में श्रुतदेवता सरस्वती का उल्लेख नहीं मिला है। यहाँ तक कि तत्त्वार्थ की टीकाओं जैसे सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक में तथा षट्खण्डागम की धवलाटीका और महाबन्ध टीका में भी मंगल रूप में श्रुतदेवी सरस्वती का उल्लेख नहीं है। महाबन्ध और उसकी टीका में मंगल रूप में जिन ४४ लब्धिपदों का उल्लेख है - उनमें भी कहीं सरस्वती या श्रुतदेवता का नाम नहीं है । ज्ञातव्य है ये ही लब्धिपद, श्वेताम्बर परम्परा में सूरिमन्त्र के रूप में तथा प्रश्नव्याकरण नामक अंग आगम में भी उपलब्ध
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