Book Title: Arbudhachal aur Taparshvavati Pradakshina Jain Tirth
Author(s): Jodhsinh Mehta
Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf

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Page 3
________________ [३०] s विशालकाय भगवान् श्री आदीश्वर जी ( श्री ऋषभदेवजी ) की मूर्ति मूलनायक तरीके स्थापित है जिसके बाहर गूढ़ मंडप उपासना हेतु निर्मित है। गूढ मण्डप यद्यपि सादे संगमरमर का बना हुआ है किन्तु इसके तीन द्वारों की बाहर की कारीगरी बहुत महान और प्रचुर है। गूढ मण्डप के पूर्वीय द्वार पर नौ चौकी है जिसकी छत, नौ भागों में विभक्त है । प्रत्येक छत पर भांति-भांति के कमल, पुष्पों, पुतलियों आदि की प्राकृतियाँ अतिसुन्दर और मनमोहक हैं। नौ चौकी से नीचे उतरने पर, इस मंदिर की सबसे सुन्दर रचना रंग मण्डप है जो १२ कलामय स्तंभों पर प्राश्रित है। रंग मंडप के तोरण और मध्यवर्ती घुमट की नक्काशी बहुत ही महान और चित्ताकर्षक है । घुमट, ग्यारह नाना प्रकार के हाथी, घुड़सवार घोड़े, बतख श्रादि हार मालाओं से प्रावृत है जो समानान्तर पर लगाई हुई षोडश १६ विद्यादेवियां अपने-अपने अलग-अलग चिन्हों से सुशोभित हैं । विद्यादेवियों के नीचे स्तंभों के ऊपरी भाग पर आश्रित, कमनीय कमर झुकती हुई तथा विविध वाजित्रों को भक्ति-भाव के साथ बजाती हुई पुतलियां दृष्टिगोचर होती हैं। घुमट के केन्द्र बिन्दु पर, बड़ा मनमोहक झुमक लटकता हुआ दिखाई देता है जो सारा का सारा सर्वोत्कृष्ट खुदाई के काम से खचित है । ऐसा प्रतीत होता है जैसे इसे मोम से ढाल कर ही बनाया गया हो। इसके पूर्व की तरफ, तीन छोटे छोटे गुम्बज हैं जिनमें कारीगरी का अनुपम सौंदर्य टपकता है । रंग मंडप, नौचोकी, गूढ मण्डप और मूल गंभारा का संयुक्त आकार क्रिश्चियन क्रॉस जैसा दिखाई देता है। जिसके चारों ओर इसके ऊपरी भाग में बावन जिनालय देव कुलिकाश्रों के श्रा गये हैं । अन्तिम जीर्णोद्धार में इन छोटी देवरियों की संख्या ५४ से ५६ हो गयी है । प्रत्येक देवरी के द्वार और द्वार के सामने की छतें, भिन्न-भिन्न प्रकार के कमल कलियों, कमल पुष्पों और कमल पत्तियों की प्राकृतियों एवं सिहों, अश्वों, हीरों, मनुष्यों और घुड़सवारों आदि की मालाओं से अलंकृत हैं । छतों और दीवारों पर, कहीं कहीं हिन्दू और जैन धर्म के शास्त्रों में वर्णित प्राख्यान - भरत बाहुबली का द्वन्द्व युद्ध, तीर्थंकरों के जन्म कल्याणक, समबसररण, गुरूपासना, कालिया नाग - दमन, लक्ष्मी, शीतलादेवी, सरस्वती, पाताल - कन्या, हिरण्य कश्यप वध, नरसिंह अवतार आदि अनेक कलाकृतियाँ खुदी हुई दिखाई देती हैं । दक्षिण पश्चिम कोने में, दो द्वार वाली देवरी में २५०० वर्ष प्राचीन भगवान् ऋषभदेव की श्याम वर्ण वाली विशाल मूर्ति के सामने सम्राट अकबर के प्रतिबोधक जगद्गुरु महान जैनाचार्य श्री हीरविजयसूरिजी की सं. १६६१ की श्वेत और सुन्दर मूर्ति है। इसके अतिरिक्त, इस मन्दिर में स्थान स्थान पर शिलालेख मिलते हैं जिसकी संख्या २५९ है । इन शिलालेखों की प्रतिलिपियाँ, स्व. मुनिराज श्री जयंतविजयजी लिखित "श्री अर्बुद जैन लेख संदोह ' ( श्राबू दूसरा भाग) में मिलती है । सबसे प्राचीन शिलालेख वि. सं. १९१९ का है । विविध स्थापत्य के नमूनों और शिलालेखों का अध्ययन करने से तत्कालीन सूत्रधारों का शास्त्र निहित परिज्ञान और परिश्रम एवं सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक जीवन का परिचय प्राप्त होता है । विमल वसहि के मुख्य द्वार के सन्मुख, विमल शाह की हस्तिशाला है जिसमें दस संगमरमर के सफेद बड़े हाथी और विमलमंत्री की अश्वारोही मूर्ति है । लूण वसहि एक ऐसा ही दूसरा अनुपम मंदिर है जो विमल वसहि के पास कुछ अधिक ऊंचाई पर स्थित है । इसकी वि. सं. १२८७ फाल्गुन वदि ३ रविवार को नागेन्द्रगच्छके प्राचार्य श्री विजयसेन શ્રી આર્ય કલ્યાણૌતન્ન સ્મૃતિગ્રંથ Jain Education International ******** For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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