Book Title: Arbudhachal aur Taparshvavati Pradakshina Jain Tirth Author(s): Jodhsinh Mehta Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf View full book textPage 2
________________ WRITIHAARAKHARImamaARARIAAAAAAAAAAAAAAAALIMIRIRIKLARIW[२९] की मूर्तियां क्रमशः भगवान् ऋषभदेव और भगवान नेमिनाथ की प्रतिष्ठापित की गई जो अाज विद्यमान हैं। अन्तिम जीर्णोद्धार सेठ आणंदजी कल्याणजी अखिल भारतीय श्वेताम्बर जैन प्रतिनिधि पेढी (अहमदाबाद) ने वि. सं २००७ से २०१९ तक सोमपुरा के सूत्रधार श्री अमृतलाल मूलशंकर त्रिवेदी द्वारा करवाया था। इन मुख्य मंदिरों के अतिरिक्त तीन जैन मंदिर और हैं जो बाद के बने हुए हैं। इस मंदिर के श्वेत संगमरमर के पाषाण, घंटनाद करते हुए हाथियों की पीठ पर, आबूरोड से करीब १४ मील दूर आरासुर पहाड़ से आये हैं । विमल वसहि और लूणिगवसहि दोनों जैन मंदिर केवल प्राचीनता के कारण ही प्रसिद्ध नहीं है किन्तु संसार की वास्तु और स्थापत्यकला के उत्कृष्ट और अलौकिक नमूने हैं। ये मन्दिर कलाकृतियों की अपूर्व निधि है जिसको निहारते हुए, दर्शक विमुग्ध होकर अपने भान को भूल जाते हैं। कर्नल एर्स किन (Col. Erskin) ने इन दोनों मंदिरों के विषय में भूरि भूरि प्रशंसा, इन शब्दों में की है "कारीगर की टांकी से, इन सब अपरिमित. व्यय से किये गये प्रदर्शनों में, दो मंदिर अर्थात आदिनाथ और नेमिनाथ के मंदिर सर्वोत्तम पौर विशेष दर्शनीय और प्रशंसनीय पाये जाते हैं। दोनों पूरे संगमरमर के बने हुए हैं और तमाम बारीकी और अलंकार की प्रचुरता से जो कि भारतीय कला के स्रोत इनको निर्माण के समय प्रदान कर सकते थे, खुदे हुए हैं।" प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टाड ने, इस मंदिर को भारत का सर्वोत्तम मंदिर और ताज से तुलना करने योग्य बतलाया है। पश्चिम भारत के स्थापत्य कला का सबसे बढ़िया नमूना है और सोलंकी समय का चालुक्य स्टाइल दिखाई देता है। विमल वसहि : इस मंदिर के निर्माण के पूर्व, विमलशाह के रास्ते में कुछ बाधाएँ आयीं, जिसको उन्होंने साहस, दढता और दैविक शक्ति से पार कर अनोखे मंदिर को संपूर्ण करने में सफलता प्राप्त की। यद्यपि विमलमंत्री ने राजा भीमदेव से मंदिर बनाने की आज्ञा प्राप्त कर ली थी, फिर भी उन्होंने १४०' x ९०' वर्ग फीट भूमि का, जिस पर यह मंदिर खड़ा हआ है, मूल्य इसके सन्निकट कन्याकुमारी के पास प्राचीन विष्णु और शैव देवालयों के जोशियों को, सुवर्ण को चौकोर मुद्रायें बिछा कर चुकाया। वे चाहते तो राजकीय प्रभाव से काम ले सकते थे किन्तु धार्मिक प्रयोजन हेतु, उन्होंने यह उचित नहीं समझा। यही नहीं, जोशियों (ब्राह्मणों) ने उनका प्राधिपत्य होने से विमलमंत्री को जैन मंदिर बनाने से रोका तो उन्होंने तीन रोज का उपवास कर श्री अंबा माताजी की प्राराधना की जिससे प्रसन्न होकर देवी ने पास ही भूमि में छिपी हुई २५०० वर्ष पुरानी जिन मूर्ति स्वप्न में बतलाई, जिसके प्रत्यक्ष होने पर, ब्राह्मणों को आबू पर्वत पर जैन धर्म का अस्तित्व होने का पुख्त प्रमाण मिला और फिर मंदिर का कार्य प्रारम्भ होने लगा। जब मंदिर का कार्य चल रहा था तब क्षेत्रपाल वालीनाथ व्यंतर ने व्याधि पैदा की जिससे दिन भर का काम रात भर में साफ हो जाता था। व्यंतर ने मांस और मदिरा की बलि मांगी परन्तु जैन होने के नाते इन्कार होकर अनाज और मिठाई देना स्वीकार किया। इसको नहीं मानने पर विमलशाह ने द्वन्द्व युद्ध कर, क्षेत्रपाल पर विजय प्राप्त की और निर्माण कार्य आगे चलने लगा। अंबा देवी की सुन्दर मूर्ति २५०० वर्ष की प्राचीन जैन प्रतिमा और वालिनाथ की मति, विमल वसहि के दक्षिण पश्चिम कोने की अोर, आज भी विद्यमान है। इस मंदिर के, मुख्य भागमूल गंभारा, गूढ मण्डप, नौ चौकी, रंग मण्डप, बावन जिनालय है। मूल गंभारा में श्वेत संगमरमर की છે. આ કથામંગોતHસ્પતિગ્રંથ હિB) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8