Book Title: Arbudhachal aur Taparshvavati Pradakshina Jain Tirth Author(s): Jodhsinh Mehta Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf View full book textPage 5
________________ [३२] mmmwwIMVARIAAAAAAS कारीगरों का मंदिर इन चार पांच मन्दिरों के सन्निकट, एक उन्नत, विशाल और तीन मंजिला, चर्तु मुख भगवान् श्री चिन्तामणी पार्श्वनाथ का मंदिर है जिसको कारीगरों का मन्दिर' कहते हैं। जनश्रुति यह है कि कारीगरों ने, दो प्रसिद्ध मंदिरों के भग्नावशेषों से, बिना परिश्रम लिये इसे बनाया था। किन्तु कुछ चिह्नों से यह मंदिर किसी खरतरगच्छ के श्रावक का बनाया हुआ मालुम होता है। इसको खरतर वसहि भी कहते हैं। मन्दिर के विशाल मण्डप हैं और मन्दिर के नीचे के बाहरी भाग में, चारों तरफ विद्यादेवियों, यक्षणियों और शाल-भंजिकाओं तथा युगल देव-देवियों की मतियां बड़े हाव-भाव प्रदर्शित करती हई अंकित हैं। सबसे ऊंची तीसरी मंजिल से पाश्ववर्ती पर्वतमालाओं, हरी भरी घाटियों के दृश्य सुन्दर और सुहावने दिखाई देते हैं। इस मन्दिर का निर्माणकाल वि. सं. १४८७ के पश्चात् और वि. सं. १५१५ के पूर्व समझा जाता है । लूरिणग वसहि और पीतलहर मन्दिर के बाच के चौक में राणा कुम्भा द्वारा वि. सं. १५०६ में निर्मित कीर्तिस्तंभ और पुष्प क्यारियों से घिरी हई सघन वक्षों की छाया में खरतरगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य दादा साहब श्री जिनदत्तसूरिजी की छत्री है । देलवाड़ा आबू के जैन मन्दिरों का दिग्दर्शन करने के पश्चात् यात्री, पर्वत के नीचे के मैदानों के अस्तव्यस्त जीवन की नीरसता को भूल कर, एकाकीपन में शान्ति अनुभव करता है। विमल वसहि और लूरिणग वसहि की, संगमरमर के पाषाण पर अंकित, प्रचुर, सुन्दर ऐश्वर्ययुक्त और अनुपम कलाकृतियों को निहार कर स्वर्गिक आनन्द का आभास करने लगता है । यों देखा जाय तो पत्थर [पाषाण] मनुष्य को समुद्र में डुबा देते हैं, किन्तु इन मन्दिरों के पत्थर, जिन पर दैविक और आधिदैविक कलामय प्राकृतियां खुदी हुई हैं, मनुष्य को भवोदधि से उभार तरा देता है। इस प्रख्यात मंदिर की व्यवस्था, राजस्थान की पुरानी और प्रसिद्ध सेठ कल्याण जी परमानन्द जी पेढी सिरोही ट्रस्ट कुशलता पूर्वक कर रही है । इस पुरातन और कलाकृत विश्वविख्यात मंदिर के बाह्य और पार्श्ववर्ती भाग के विकास के लिये ट्रस्ट और राजस्थान सरकार ने मिल कर संयुक्त पुनर्विकास योजना सन् २७-५-६९ को बनाई है जिसको कार्यान्वित करने के प्रयास चल रहे हैं। अचलगढ़ के मन्दिर : देलवाड़ा से ४ मील दूर, आबू पर्वत पर, ४६०० फीट ऊँचाई पर, एक दूसरा प्राचीन अचलगढ़ है जहां पर तीन जैन मन्दिर हैं। इनमें से श्री आदिनाथ भगवान् के दोमंजिला चौमुखा मंदिर में बिराजमान चौदह मूर्तियों का वजन १४४४ मन के करीब गिना जाता है। इन मूर्तियों की प्रतिष्ठा वि. सं. ११३४, १५१८, १५२६, १५६६ और १६६८ में हुई है। चतुर्मुख मंदिर सबसे उन्नत शिखर पर है और इसके नीचे के स्थान पर भगवान् श्री ऋषमदेव का सं.१७२१ का एक अन्य मंदिर है जिसके पार्श्व में २४ देवरियां है। यहाँ पर सरस्वतीदेवी की भी एक मूर्ति थी जो चतुर्मुख मंदिर के बाहर स्थापित की गई है। इससे विदित होता है कि प्राचीन काल में अचलगढ़ दुर्ग पर सरस्वती देवी की पूजा हुमा करती थी। दूसरा मंदिर गढ़ के दरवाजे के पास अचलगढ़ पेढी के पुराने कार्यालय में भगवान् श्री कुन्थुनाथ का वि. सं १५२९ का मंदिर है जहाँ पर मूलनायक भगवान् की काँसेकी मूर्ति है और कई पंचधातु की प्रतिमाएं हैं । पुराने कार्यालय के दालान में योगीराज स्वर्गस्थ श्री રહી . શ્રી આર્ય કલ્યાણગૌતમસ્મૃતિગ્રંથ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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