Book Title: Arbudhachal aur Taparshvavati Pradakshina Jain Tirth Author(s): Jodhsinh Mehta Publisher: Z_Arya_Kalyan_Gautam_Smruti_Granth_012034.pdf View full book textPage 1
________________ श्री अर्बुदाचल और तत्पार्श्ववर्ती प्रदक्षिणा जैनतीर्थ - श्री जोधसिंहजी मेहता, B. A., LL.B. विश्वविख्यात देलवाड़ा जैन मन्दिर : देलवाड़ा का प्राचीन नाम 'देव कुल पाटक' है । जो अर्बुदाचल श्राबू पर समुद्र की सतह से लगभग ४००० फीट ऊँचा है । जैन मान्यता के अनुसार, इस पर्वत पर अरब ( सौ करोड़ ) मुनिवरों ने तपाराधना की और भगवान् ऋषभदेव के दर्शन कर कृतकृत्य हुए। दूसरा कथन यह भी मिलता है। कि जो यहाँ के मूलनायक भगवान् श्री आदीश्वरजी के सन्मुख जो वस्तु भेंट की जाय, उसका फल आगामी भव में अर्बुद गुणा (दश करोड़ गुना ) प्राप्त होता है । यही कारण है कि इस पर्वत का नाम अर्बुदाचल है। चक्रवर्ती ने अपने पिता भगवान् ऋषभदेव . यह भी कहा जाता है कि बहुत प्राचीन समय में भरत का चतुमुख प्रासाद इसी श्राबू पर्वत पर निर्माण करवाया था, जो कालान्तर में विध्वंस हो गया और फिर मध्यकालीन युग में वि. सं. १०८८ (सन् १०३१) में गुजरात के राजा भीमदेव प्रथम के मंत्री और सेनापति विमलशाह जब चन्द्रावती नगरी ( आज विध्वंस रूप और आबूरोड रेल्वे स्टेशन से ४ मील) के शासक रहे, तब प्राचार्य श्री धर्मघोषसूरि के सदुपदेश से इस पुरातन तीर्थ का उद्धार कराया । देलवाड़ा में १८ करोड़ और ५३ लाख रुपये का सद्व्यय करके गुजरात के वडनगर के पास के प्रसिद्ध सूत्रधार कीर्तिश्वर द्वारा अपने नाम से 'विमल वसहि' नाम का मंदिर निर्माण करवाया। इस श्वेत संगमरमर के मंदिर को बनाने में १५०० कारीगरों व १२०० मजदूरों ने महान् परिश्रम किया और संसार में संगतराशी का मनोहर और महान् कारीगरी का अनुपम कौतुक १४ वर्षों में खड़ा किया जिसको 'संगमरमर का सौन्दर्य' कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसा ही दूसरा मन्दिर इसके पार्श्व में कुछ ऊँचाई पर गुजरात के राजा वीरधवल के दो भ्राता मंत्री वस्तुपाल और तेजपाल ने १२ करोड़ और ५३ लाख रुपये खर्चकर, अपने बड़े भाई लूणसिंह की स्मृति में बनवाकर, उसका नाम लूगिगवसहि रखा। इस रमणीय कारीगरी वाले मन्दिर का सूत्रधार गुजरात का सोमपुरिया शिल्पी शोभनदेव था । इस मन्दिर का निर्माण वि. सं. १२८८ (सन् १२३० ई.) में हुआ था । वि. सं १३६८ (सन् १३११ ई.) में यवन सेना, सम्भवतः अल्लाउद्दीन खिलजी की सेना ने जो जालोर जीत कर, आबूरोड होकर कूच कर रही थी, इन मन्दिरों को कुछ ध्वंस किया जिसके दस वर्ष बाद वि. सं. १३७८ (सन् १३३१ ई.) में उत्तम श्रावक लल्ल और बीजडने विमल वसहि का और व्यापारी चंडसिंह के पुत्र पीथड़ ने लूणिग वसहि का जीर्णोद्धार करवाया श्रौर उस समय दोनों मंदिरों में प्रस्थापित मूर्तियों के स्थान पर श्वेत और श्याम पाषाण શ્રી આર્ય કલ્યાણ ગૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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