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अनुसन्धान-७५(२)
कह्या है तिहा पिच्चा शब्द है नही, तो उहांभी इहभवको फल होगो । परभवका नही होगा । ए वात प्रतक्ष-विरुद्ध है । इस वास्तै विद्यमान तीर्थंकर वंदन पूजनादिकका फल तथा पंचमहाव्रतपालणका फल सुत्रमें 'हिआ सुहाए' - इत्यादि कह्या हैं । सोई फल सुरियाभ अधिकारें जाणवा । पिण धनका दृष्टांत कहै सो खोटा है। मिलै कोई नही।
तथा जैन अनेकांत मार्ग है । कोईक नयसे मिलावां तौ यौ भी दृष्टांत मि[ल] जाय । फेर कहता है, जिहां 'पुव्वं पच्छा' पाठ छै, तिहां इहभवनो ही ज अर्थ छै, परभवनों न ही, सो वात झूठी है। श्रीआचारांगसुत्रे ४ अध्ययनें ४ उदेशें - 'जस्स नत्थि पुरो पच्छा' जैसो पाठ है। तहां पूर्वभव पछलाभव को अर्थ कह्यौ
है।
संवत १९०९ मिति पोस शुदि १३ को संपूर्णम् लिखतं वृधिचंद्रने ॥ श्री श्री १०८ स्वामीजी सिरोमणि तपोधन श्रीबूटेरायजीके प्रसादेन ॥
श्रीरस्तू । कल्पानमस्तू ॥ श्री। श्री। श्री। श्री ॥
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