Book Title: Anusandhan 2011 02 SrNo 54
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 11
________________ फेब्रुआरी २०११ पूर्वापरौ । पूर्वश्च अपरश्च पूर्वापरौ । पूर्व भणीयइ पूर्व-सागर । अपर समुद्र । अपर भणीइ पश्चिम दिशि तणउ समुद्र । ति बेउ विगाही व्यापीउ रहियु अछइ. कवि-कालिदासेन उत्प्रेक्षते क इव? पृथिव्या मानदण्ड इव । प्रमाणयष्टिरिव । जाणीयइ किरि पृथ्वी मविवा-तणउ दंड छइ । भणइ हो एहउ दंडु किम घटइ । भणइ यावन्मयं तावत्प्रमाणो दण्डः क्रियते । यदा गृहादि अनुमीयते तदा हस्तप्रमाणय (?) लंबया मीयते । तदा हिमवत्सदृशेन दण्डेनेत्यर्थः । न तु (?नु) अहो हिमस्यालयः हिमालयः । तस्य ग्रन्थादौ किं वर्णनम् । नैवं । हि निश्चितं मा लक्ष्मीः तस्या आलये(यो) हिमालयः ।। हि निश्चई मा भणीयइ लक्ष्मी तहि तणउ आलयु आवासु जु ॥छ।। यं सर्वशैलाः परिकल्प्य वत्सं मेरौ स्थिते दोग्धरि दोह-दक्षे । भास्वन्ति रत्नानि महौषधीश्च पृथूपदिष्टां दुदुहुर्धरित्रीम् ॥२॥ इदानीं षोडशभिः श्लोकैः माहिमाव(च?)लवर्णनमेव प्रतुष्टुषुराह । हवं एहि सोलिहि श्लोकिहि हिमाचल-तणउं वर्णनु स्तवतु हूंतउ कवि बोलच्छइ । सर्वशैलाः सर्वे मेरुमन्दरादयः पर्वताः यं हिमालयं वत्सं परिकल्प्य तर्णकं रचयित्वा धरित्री पृथ्वी रत्नानि दुदुहुः । वच(व?)इ(?) अधुक्षत । सविहु शैलि सविहउ पर्वति जु हिमाचलु वत्सु वाछडउ कल्प्पी(प्यी?)उ धरित्री पृथ्वी रत्न दूधी । न केवलं रत्नानि दुदुहुः । अनइ महौषधीश्च । महत्यश्च ओषधयश्च महौषधयस्ता महौषधीः । इसउँ नही ज केवलां रत्न दूधी । अनइ महांत अछइ जि शिल्यविशल्या-अमृतसंजीवनी-व्रणसंरोहिणी-इत्यादिक-ऊषधी दूधी ।

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