Book Title: Anusandhan 2010 03 SrNo 50 2
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 251
________________ २४४ अनुसन्धान ५० (२) द्वारा सम्पादित द्वादशार नयचक्र दीपस्तम्भ की तरह विद्यमान है। आगम प्रभाकर श्रीपुण्यविजयजी महाराज आगम साहित्य और सम्पादन साहित्य के आधिकारिक विद्वान् थे। उनके आगम ग्रन्थों का सम्पादन का कार्य चल रहा था इसी बीच में उनका आकस्मिक स्वर्गवास हो गया और उस अपूर्ण कार्य को श्रीजम्बूविजयजी ने अपने कन्धों पर लिया । आगमों के सम्पादन का कार्य करते हुए उन्होंने पञ्चाङ्गी को स्वीकार किया और पञ्चाङ्गी के साथ सम्पादन कार्य भी प्रारम्भ किया । उनकी पैनी दृष्टि इतनी थी कि जब तक उन स्थलों का स्वयं निरीक्षण नहीं कर लेते तब तक उन्हें चैन नहीं पड़ता था । यह ठीक है कि उनके कार्यों में कुछ अधिक विलम्ब होता था किन्तु वह विलम्ब भी कुछ नवीन वस्तु के साथ प्रकाशित होता था । स्थानाङ्ग सूत्र इसका प्रमाण है। वे अप्रमत्त भाव से सम्पादन कार्य में संलग्न रहा रहते थे। मैंने देखा है कि वे एक स्थान पर बैठकर पसीने से तर-ब-तर होने पर भी अपने कार्य को नहीं छोड़ते थे और जब तक कि उस अंश का सम्पादन नहीं कर पाते । सम्पादन में उनकी पैनी दृष्टि इनकी अधिक थी कि व्याकरण दृष्टि के अनुसार अनुस्वार कहाँ उपयुक्त है और कहाँ अनुपयुक्त है, संयुक्ताक्षरों में आधा ‘ङ और 'अ' का कहाँ प्रयोग किया जाना चाहिए, इसका भी पूर्ण ध्यान रखते थे। शत्रुञ्जयाधिराज ऋषभदेव भगवान और शङ्केश्वर पार्श्वनाथ इनके इष्ट थे। कोई भी कार्य उनके स्मरण किए बिना नहीं करते थे। जब शत्रुञ्जय रहते तब आदिनाथ भगवान की यात्रा नियमित रूप से किया करते थे । शङ्केश्वर पार्श्वनाथ भी उनके परमाराध्य थे। यही कारण है कि उनका दाहसंस्कार भी वहीं शङ्केश्वर तीर्थ में हुआ। जम्बूविजयजी आगम सम्पादन के कार्य को ध्यान से रखते हुए जन कोलाहल से दूर रहा करते थे और सर्वदा ग्रामों में चातुर्मास किया करते थे। कभी भी उनमें नामलिप्सा नहीं रही और न कभी उन्होंने अपने द्वारा सम्पादित किसी ग्रन्थ का विमोचन भी करवाया । शास्त्र सम्पादन के अतिरिक्त शास्त्रसंरक्षण और उसके प्रकाशन के प्रति भी इनका प्रशस्त राग अनुकरणीय ही कहा जाएगा। श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिर Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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