Book Title: Anusandhan 2010 03 SrNo 50 2
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 250
________________ श्रद्धासुमन म. विनयसागर विद्वज्जगत के लिए वह दिन अत्यन्त सौभाग्यशाली था जबकि ८ दशक पूर्व एक नन्हे से बालक ने जैन दीक्षा ग्रहण कर जम्बूविजय नाम प्राप्त किया था । ये जैनाचार्य श्रीविजयसिद्धिसूरिजी महाराज जो दादा के नाम से प्रसिद्ध थे के शिष्य श्रीविजयमेघसूरि के शिष्य श्रीभुवनविजयजी के शिष्य थे । श्रीभवनविजयजी इनके पिता थे और इनकी माता ने भी विक्रम संवत् १९९५ में दीक्षा ग्रहण की थी । जिनका नाम मनोहर श्रीजी रखा गया था । शतवर्षाधिकायु अवस्था प्राप्त कर इनका स्वर्गवास पालीताणा में हुआ था । पारिवारिक संस्कारों के कारण ही यह परिवार पूर्णतः जैनधर्मानुयायी था और आत्मकल्याण के लिए अग्रेसर था । इनके स्वजन सम्बन्धी पारिवारिक जनों में भी लगभग २० के ऊपर दीक्षित हुए हैं। जिनमें श्रीयशोविजयसूरि, श्रीमुनिचन्द्रसूरि, आदि प्रसिद्ध लेखक और चिन्तक विद्यमान हैं । ___ श्रीभुवनविजयजी इनके पिता थे इसलिए स्वाभाविक था कि वे अपने पुत्र को प्रौढ विद्वान् बनाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने प्रयत्न भी किया। यही कारण है कि वे एकदेशीय विद्वान् न होकर सर्वदेशीय विद्वान् बने । प्रारम्भिक अध्ययन इनका दर्शन, न्याय और इतिहास का था। उनकी इतिहास के प्रति पैनी दृष्टि इसी से आंकी जा सकती है कि उन्होंने कुण्डलपुर पर एक लेख लिखा था जो कि जैन सत्यप्रकाश में प्रकाशित हुआ था। दर्शन न्याय के धुरन्धर विद्वान् बनने पर उनके हृदय में यह आकांक्षा उत्पन्न हुई कि मैं ऐसे किसी ग्रन्थ का सम्पादन करूँ जो कि आज तक नहीं हुआ हो ! फलतः उन्होंने आचार्यश्रीमल्लवादी कृत द्वादशार नयचक्र को चुना। कुछ विषय अस्पष्ट रह जाने के कारण और इसकी विशिष्ट प्रति भोट भाषा में लिखित होने के कारण उन्होंने आगम प्रभाकर मुनि श्रीपुण्यविजयजी के निर्देश पर उसका भी अध्ययन किया । भोट भाषा के साथ अन्य कई भाषाओं-प्राकृत, संस्कृत, अंग्रेजी आदि का भी उन्होंने आधिकारिक अध्ययन किया था। कई प्रतियों के साथ द्वादशार नयचक्र का सम्पादन किया । यही कारण है कि उनके Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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