Book Title: Anusandhan 1998 00 SrNo 12
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 4
________________ सम्पादकीय निवेदन केटलाक सामयिको माटे एवं बने छे के तेना संपादके ज तेना लेखक पण बनवुं पडे छे. "अनुसंधान" पण आ परिस्थितिनो केटलेक अंशे अनुभव करे ज छे. अलबत्त, आ प्रकारना सामयिकमां स्वतंत्र सर्जनात्मक कही शकाय तेवी सामग्री करतां संशोधनात्मक के अन्वेषणात्मक सामग्रीनुं प्रमाण वधु होय, एटले संपादक ए अर्थमां पण संपादक ज रहे छे, ते मोटुं आश्वासन गणाय. "अनुसंधान" माटे प्रेमपूर्वक पोतानां संपादनो, संशोधनो के अन्वेषण-नोंधो पाठवनार मित्रोनुं एक बाबते आदरपूर्वक ध्यान दोरीशुं के तेओ जे पण सामग्री पाठवे ते सुवाच्य अक्षरोमां अने नागरी (बालबोध) लिपिमां ज लखीने पाठवे, तो कंपोज करनार पर तथा प्रूफरीडर पर तेमनो मोटो अनुग्रह थशे. Jain Education International For Private & Personal Use Only - संपादको www.jainelibrary.org

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