Book Title: Anand Pravachana Part 9 Author(s): Anandrushi Publisher: Ratna Jain Pustakalaya View full book textPage 9
________________ २१.. सत्यशरण सदैव सुखदायी धर्मप्रेमी बन्धुओं! आज मैं जीवन के एक महत्त्वपूर्ण अनिवार्य तत्त्व पर आपसे बातें करूँगा। वह तत्व है-सत्य ! उत्कृष्ट जीवन का वह आवश्यक तत्त्व है। साधनामय जीवन का वह प्रथम स्तम्भ है, जिसका सहारा लिए बिना साधक आगे चल नहीं सकता। जिसका सहारा लेकर ही जीवन में प्रगति, उत्क्रान्तित या परिवर्तन किया जा सकता है। गौतमकुलक का यह बीसवाँ जीवनसूत्र है। वह इस प्रकार है-- 'किं सरणं ? F सच्चं' शरण क्या है ? सत्य ही तो है। अथो—जगत् में एक मात्र सत्य ही शरण है। साधक जीवन में सत्य की शरण लेना ही श्रेयस्कर है। शरण कब और किसकी ? जब मनुष्य किसी द्वेषी, विरोधी या शत्रु द्वारा सताया जा रहा हो, भयभीत हो, या कोई विपत्ति उस पर आ गई हो अथवा कोई धर्मसंकट आ पड़ा हो, उस समय घबराया हुआ मनुष्य किसी ऐसे समर्थ की शरणगढूँढता है, जहाँ उसकी सुरक्षा हो सके, जहाँ उसका सम्मान सुरक्षित रहे। अथवा किसी संताप या दुःख से मनुष्य पीड़ित हो, उस पर मारणान्तक आ पड़ा हो, या असह्य यातना उसे दी जा रही हो, तब मनुष्य किसी अभीष्ट या बलिष्ठ की शरण लेता है, ताकि वह उस कष्ट, पीड़ा, संताप, यातना या दुःख से बच सके या उन्हें समभावपूका सहन कर सके। जिसकी शरण लेने से सुरक्षा न हो, अठया सम्मान सही-सलामत न रहे, कष्ट, पीडा या दुःख से जो न बचा सके, न बचाने का उपाय बता सके, अथवा कष्ट, पीड़ा या दुःख के समय जो न तो सहनशक्ति दे सके, न धैर्य दे सके और न ही जीवन की अटपटी घाटियों में से पार उतरने के लिए यथाशे मार्गदर्शन दे सके, उसकी शरण लेना व्यर्थ है। ऐसे व्यक्ति या पदार्थ की शरण में आकर व्यक्ति अपनी रही-सही शक्ति भी खो देता है और विपदाओं के भंवरजाल में फँस जाता है। जो व्यक्ति विश्वासघाती है, वचन देकर बीच में ही धोखा देता है, जो मायापरी है, झूठ-फरेव करता है, वह चाहेPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 415