________________
आनन्द प्रवचन : भाग ६
सत्य की शरण ही क्यों?
प्रश्न होता है, सत्य की ही शरण क्यों की जाए ? सत्य में ऐसी क्या विशेषता
सर्वप्रथम तो आपको यह समझ लेना है कि सत्य सांसारिक पदार्थों की तरह नाशवान् या क्षणिक- अनित्य नहीं है, वह शाश्वत है, नित्य है। हजारों वर्ष पहले जो सत्य था, वही आज भी है। दूसरे : उसकी बलिष्ठता के कारण उसकी शरणदायकता में किसी को सन्देह नहीं होसकता। प्रश्नव्याकरण सूत्र में सत्य की महाशक्ति का परिचय दिया गया है। मैं संक्षेप में आपको बताऊँगा-'महासमुद्र में दिग्भ्रान्त बने हुए जहाज सत्य के प्रभाव से स्थिा रहते हैं, डूबते नहीं। जल का उपद्रव होने पर सत्य के प्रभाव से मनुष्य न वहते हैं, + मरते हैं, किन्तु पानी की थाह पा लेते हैं। यह सत्य का ही प्रभाव है कि मनुष्य अग्निमें जलते नहीं। सत्य को अपनाने वाले व्यक्ति पहाड़ से गिराये जाने पर भी मरते नहीं। युद्ध में तलवार हाथों में लिए हुए विरोधियों से घिरकर भी सत्यनिष्ठ महापुरुष अक्षत निकल आते हैं। सत्य के प्रभाव से सत्यधारी घोर वध, बन्ध, अभियोग और शत्रुत्रा से भी मुक्ति पा लेते हैं और शत्रुओं से बचकर निकल आते हैं। सत्य से आकृष्ट होकर देवता भी सत्यवादी की सेवा में रहते हैं।"
भारतीय संस्कृति में एक सूक्ति प्रचलिक हैं--"सत्य में हजार हाथियों के बराबर बल होता है।" शारीरिक दृष्टि से यह वाता भले ही तथ्यपूर्ण न लगती हो, मगर आत्मिक दृष्टि से तो पूर्णतः यथार्थ है। जो ब्यक्ति सत्य की शरण में चला जाता है, उस सत्यनिष्ठ में इतनी आत्मशक्ति आ जाती है कि वह अकेला हजार मिथ्याचारियों से भिड़ सकता है, और अन्ततः विजयी बनता है। इसलिए ऐसे बलिष्ठ और आपत्काल में रक्षक सत्य की शरणागति में किसको सन्देर हो सकता है ? सत्य की शरण स्वीकार करने पर व्यक्ति चाहे कितनी ही आपदाओं से घिरा हो, उसे सान्त्वना मिलती है, उसका विश्वास दृढ़ होता है, और उसकी रक्षाभी होती है।
सत्य ही अपनी शरण में आए हुए व्यक्ति के जीवन में बल और प्रकाश भरता है। सत्य का अवलम्बन लेने पर समाज की शक्ति और क्षमता में चार चाँद लग जाते हैं। असत्य का आश्रय लेने पर व्यक्ति एवं समाज, चाहे वह कितना ही सम्पन्न, समृद्ध, बलिष्ठ या सत्ताधीश हो, उसका अधःपतन हो जाता है, वह भयंकर दुःखों को पाता हुआ दुर्गतियों में भटकता है। एक प्राचीन कथा इस सम्बन्ध में सुन्दर प्रकाश डालती है
तुरमिणी नगरी के निवासी कालक ब्राह्मण ने पूर्वजन्म के संस्कारवश स्वयं प्रतिबोध पाकर स्वयं भागवती दीक्षा ले ली। अपनी योग्यता के बल पर उन्हें आचार्य पद प्राप्त हुआ।