Book Title: Ahimsa Mahavira ki Drushti me Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 8
________________ अहिंसा : महावीर की दृष्टि में यह बात तो हुई आज के संदर्भ में भगवान महावीर के अहिंसा सिद्धान्त की उपयोगिता की; पर मूल बात तो यह है कि भगवान महावीर की दृष्टि में अहिंसा का वास्तविक स्वरूप क्या है? । आज यह प्रचलन-सा हो गया है कि जब कोई व्यक्ति अहिंसा की बात कहेगा तो कहेगा कि हिंसा मत करो - बस यही अहिंसा है: पर हिंसा का भी तो वास्तविक स्वरूप कोई स्पष्ट नहीं करता। यदि हिंसा को छोड़ना है और अहिंसा को जीवन में अपनाना है तो हमें हिंसा-अहिंसा के स्वरूप पर गहराई से विचार करना होगा, बिना समझे किया गया ग्रहण-त्याग अनर्थक ही होता है अथवा सम्यक् समझ बिना ग्रहण और त्याग संभव ही नहीं है। जैसा कि कहा गया है - "संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने" अथवा "बिन जाने से दोषगुनन को कैसे तजिए गहिए?" अतः हिंसा के त्याग और अहिंसा के ग्रहण के पूर्व उन्हें गहराई से समझना अत्यन्त आवश्यक है। एकबार महर्षि व्यास के पास कुछ शिष्यगण पहुँचे और उनसे निवेदन करने लगे - “महाराज ! आपने तो अठारह पुराण बनाये हैं। संस्कृत भाषा में लिखे गये ये मोटे-मोटे पोथन्ने पढ़ने का न तो हमारे पास समय ही है और न हम संस्कृत भाषा ही जानते हैं। हम तो अच्छी तरह हिन्दी भी नहीं जानते हैं तो संस्कृत में लिखे ये पुराण कैसे पढ़ें ? हमारे पास इतना समय भी नहीं है कि हम इन्हें पूरा पढ़ सकें। अतः हमारे हित की बात हमें संक्षेप में समझाइये न?" उनकी बात सुनकर महाकवि व्यास बोले “भाई ! ये अठारह पुराण तो हमने हम जैसों के लिए ही बनाये हैं, तुम्हारे लिए तो मात्र इतना ही पर्याप्त है - अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।। १. महाकवि तुलसीदास : रामचरितमानस २. कविवर दौलतराम : छहढाला; तीसरी ढाल, छन्द ११ अहिंसा : महावीर की दृष्टि में अठारह पुराणों में महाकवि व्यास ने मात्र दो ही बातें कही हैं कि यदि परोपकार करोगे तो पुण्य होगा और पर को पीड़ा पहुँचाओगे तो पाप होगा। मात्र इतना जान लो, इतना मान लो और सच्चे हृदय से जीवन में अपना लो - तुम्हारा जीवन सार्थक हो जायेगा।" ___ मानो इसीप्रकार भगवान महावीर के अनुयायी भी उनके पास पहुंचे और कहने लगे कि महर्षि व्यास ने तो अठारह पुराणों का सार दो पंक्तियों में बता दिया; आप भी जैनदर्शन का सार दो पंक्तियों में बता दीजिये न, हमें भी ये प्राकृत-संस्कृत में लिखे मोटे-मोटे ग्रन्थराज समयसार, गोम्मटसार पढ़ने की फुर्सत कहाँ है? मानो उत्तर में महावीर कहते हैं - ____ "अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।।' आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति ही हिंसा है और आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है - यही जिनागम का सार है।” आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति ही हिंसा है - यह कहकर यहाँ भावहिंसा पर विशेष बल दिया है, द्रव्यहिंसा की चर्चा तक नहीं की; अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या महावीर द्रव्यहिंसा को हिंसा ही नहीं मानते हैं? यदि मानते हैं तो फिर सीधे-सच्चे शब्दों में यह क्यों नहीं कहते कि दुनिया में मारकाट का होना हिंसा है और दुनिया में मारकाट का नहीं होना ही अहिंसा? ___ - यह हिंसा-अहिंसा की सीधी-सच्ची सरल परिभाषा है, जो सबकी समझ में सरलता से आ सकती है; व्यर्थ ही वाग्जाल में उलझाकर उसे दुरूह क्यों बनाया जाता है? १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लोक ४४ २. इसीप्रकार की एक गाथा कषायपाहुड़ में प्राप्त होती है, जो इसप्रकार है - रागादीणमणुप्पा अहिंसगत्तं ति देसिदं समये। तेसिं चे उप्पत्ती हिंसेति जिणेहि णिद्दिट्ठा।। 8Page Navigation
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