Book Title: Ahimsa Mahavira ki Drushti me
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 17
________________ अहिंसा : महावीर की दृष्टि में भाई ! गजब हो गया है; वीतरागी जैनधर्म में भी आज राग को धर्म माना जाने लगा है। जब पानी में ही आग लग गई हो, तब क्या किया जा सकता है? भगवान महावीर तो स्वयं वीतरागी थे, वे राग को धर्म कैसे कह सकते हैं? भाई ! जब कोई वीतरागी बनता है तो सम्पूर्ण राग का अभाव करके ही बनता है, सबके प्रति राग तोड़कर ही बनता है; किसी के भी प्रति राग रखकर, कैसा भी राग रखकर वीतरागी नहीं बना जा सकता। भाई ! सीधी-सी बात है कि यदि वीतरागता धर्म है तो राग अधर्म होगा ही। __इतना सीधी सच्ची बात भी हमारी समझ में नहीं आती। भाई ! पूर्वाग्रह छोड़े बिना यह बात समझ में नहीं आ सकती। भाई ! मैं एक बात कहूँ। बेटे तीन प्रकार के होते हैं। इसे हम इसप्रकार समझ सकते हैं - आप चार व्यक्ति किसी काम से मेरे घर पधारे। मैंने आपको आदरपूर्वक बिठाते हुए अपने बेटे को आवाज दी - "भाई, परमात्मप्रकाश ! एक गिलास पानी लाना।" आदत है न एक गिलास बोलने की; पर चतुर बेटा समझता है कि भले ही एक गिलास कहा है; पर अतिथि तो चार हैं न और एक पिताजी भी तो हैं। इसप्रकार वह पाँच गिलास भरकर लाता है. साथ में एक भरा हुआ जग (लोटा) भी लाता है; क्योंकि वह जानता है कि गर्मियों के दिन हैं, कोई दो गिलास पानी भी पी सकता है; कोई दूध या चाय तो है नहीं, जो माँगने में संकोच करेगा। दूसरा बच्चा वह है, जो मात्र एक गिलास ही पानी लाता है। टोकने पर जवाब देता है कि आपने ही तो कहा था कि एक गिलास पानी लाना। बड़ा आज्ञाकारी है न ! जब एक गिलास कहा था तो अधिक कैसे ला सकता था? तीसरा वह है, जो आधा गिलास पानी ही लाता है। पूछने पर उत्तर देता है कि 'मैंने सोचा-छलक न जाये. झलक न जाये।' भाई ! हम सभी भगवान महावीर की सन्तान हैं। अब जरा विचार कीजिए कि हम भगवान महावीर के कौन से बेटे हैं- पहले, दूसरे या तीसरे? अहिंसा : महावीर की दृष्टि में भगवान ने कहा था - "रागादिभाव हिंसा हैं।" उनके इस कथन का आशय पहला बेटा यह समझता है कि सभी प्रकार का शुभाशुभ, मंद-तीव्र राग तो हिंसा है ही, साथ में द्वेषादि भाव भी हिंसा ही हैं। दूसरे बेटे वे हैं, जो कहते हैं कि हम तो अकेले राग को ही हिंसा मानेंगे, क्योंकि स्पष्ट रूप से तो राग का ही उल्लेख है। उनसे यदि यह कहा जाये कि 'राग' के साथ 'आदि' शब्द का भी तो प्रयोग है तो कहते हैं कि है तो; पर यह कैसे माना जाये कि आदि से द्वेषादि ही लेना, सम्यग्दर्शनादि नहीं। तीसरे वे हैं, जो कहते हैं कि भगवान ने यदि राग को हिंसा कहा है तो हमने अशुभराग-तीव्रराग को हिंसा मान तो लिया। यह जरूरी थोड़े ही है कि हम सम्पूर्ण राग को हिंसा मानें। लिखा भी तो अकेला रागादि ही है, यह कहाँ लिखा कि सभी रागादि हिंसा हैं? अब आप ही निश्चित कीजिए कि आप भगवान महावीर के कौन से पुत्र हैं - पहले, दूसरे या तीसरे? मुझे इस बारे में कुछ नहीं कहना है। यह निर्णय मैं आप सब पर ही छोड़ता हूँ। इसप्रकार हम देखते हैं कि भगवान महावीर ने हिंसा और अहिंसा के स्वरूप के स्पष्टीकरण में राग शब्द का प्रयोग बहुत व्यापक अर्थ में किया है, सभी प्रकार का राग तो उसमें समाहित है ही, राग के ही प्रकारान्तर द्वेषादि परिणाम भी उसमें समाहित हैं। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि क्या रागादिभाव की उत्पत्ति मात्र से ही हिंसा हो जाती है, चाहे जीव मरे या न मरे? क्या जीवों के मरण से हिंसा का कोई सम्बन्ध नहीं है? हाँ, भाई ! बात तो ऐसी ही है; पर जगत तो यही कहता है कि जबतक प्राणियों का घात न हो, जीवों का मरण न हो; तबतक हिंसा कैसे हो सकती है, तबतक हिंसा की उत्पत्ति कैसे मानी जा सकती है? __यह भोला जगत तो हिंसा का सम्बन्ध मृत्यु से ही जोड़ता है; परन्तु गंभीरता से विचार करें तो बात दूसरी ही नजर आती है।

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