Book Title: Ahimsa Mahavira ki Drushti me
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ अहिंसा : महावीर की दृष्टि में अतः यह सहज ही सिद्ध होता है कि खान-पान संबंधी हिंसा में भी राग ही मूल कारण है। इसीप्रकार पाँचों इन्द्रियों के भोग भी राग के कारण ही भोगे जाते हैं। क्रूरतम हिंसा से उत्पन्न शृंगार-सामग्रियों के उपयोग के मूल में भी राग ही कार्य करता देखा जाता है। जिन्दा पशुओं की चमड़ी उतारकर बनाई गई चमड़े की वस्तुओं का उपयोग भी अज्ञानी जीव प्रेम से ही करते हैं, उनके प्रति आकर्षण का कारण राग ही है। रेशम के कीड़ों को उबाल कर बनाई जानेवाली रेशम की साड़ियाँ भी महिलायें रागवश ही पहिनती हैं। भाई ! अधिक क्या कहें? अकेली हिंसा ही नहीं, पाँचों पापों का मूल कारण एकमात्र रागभाव ही है। लोभरूप राग के कारण ही लोग झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, परिग्रह जोड़ते हैं। झूठ बोलकर लोगों को ठगनेवाले लोग पैसे के प्रति ममता के कारण ही तो ऐसा करते हैं। चोर सेठजी की तिजोरी, उसमें रखे पैसों के लोभ के कारण ही तोड़ता है, सेठजी के प्रति द्वेष के कारण नहीं। यदि उसे सेठ से द्वेष होता तो वह सेठजी की तिजोरी नहीं तोड़ता, खोपड़ी खोलता। इसीप्रकार समस्त बाह्य परिग्रह जोड़ने के मूल में बाह्य वस्तुओं के प्रति राग ही कार्य करता है। माता-बहिनों की इज्जत भी रागी ही लूटते हैं, द्वेषी नहीं। इतिहास उठाकर देख लो. आजतक जितनी भी माता-बहिनों की इज्जत लुटी है, वह रागियों ने ही लूटी है, द्वेषियों ने नहीं। आप प्रतिदिन प्रातःकाल समाचारपत्र पढ़ते हैं। उनमें यह लिखा तो मिलता है कि एक गोरी-भूरी सुन्दर युवती क्रीम-पाउडर लपेटे, तंग वस्त्र पहिने, हँसती-खेलती तितलीसी बनी बाजार में जा रही थी तो कुछ कॉलेजी लडकों ने उससे छेडखानी की: पर आपने यह कभी नहीं पढ़ा होगा कि एक काली-कलूटी, सफेद बालों वाली, घिनौनी-सी गंदी लड़की रोती-रोती सड़क पर जा रही थी और उससे किसी ने छेड़खानी की। भाई! छेड़खानी का पात्र भी वही होता है, जिसे देखकर हमें राग उत्पन्न हो। इसप्रकार हम देखते हैं कि पाँचों पापों की मूल जड़ एकमात्र रागभाव अहिंसा : महावीर की दृष्टि में ही है। यही कारण है कि कविवर पण्डित दौलतरामजी छहढाला में लिखते हैं "यह राग आग दहै सदा तातै समामत सेडये। चिर भजे विषय-कषाय अब तो त्याग निज पद बेड़ये॥" भाई! यह राग तो ऐसी आग है, जो सदा जलाती ही है। जिसप्रकार आग सर्दियों में जलाती है, गर्मियों में जलाती है; दिन को जलाती है, रात को जलाती है; सदा जलाती ही है; उसीप्रकार यह राग भी सदा दुःख ही देता है। जिसप्रकार आग चाहे नीम की हो, चाहे चंदन की; पर आग तो जलाने का ही काम करती है। ऐसा नहीं है कि नीम की आग जलाये और चन्दन की आग ठंडक पहुँचाये। भाई!चन्दन भले ही शीतल हो.शीतलता पहुँचाता हो; पर चन्दन की आग तो जलाने का ही काम करेगी। भाई! आग तो आग है; इससे कुछ अन्तर नहीं पड़ता कि वह नीम की है या चन्दन की। उसीप्रकार राग चाहे अपनों के प्रति हो या परायों के प्रति हो; चाहे अच्छे लोगों के प्रति हो या बरे लोगों के प्रति हो; पर है तो वह हिंसा ही, बुरा ही। ऐसा नहीं है कि अपनों के प्रति होनेवाला राग अच्छा हो और परायों के प्रति होनेवाला राग बुरा हो अथवा अच्छे लोगों के प्रति होनेवाला राग अच्छा हो और बुरे लोगों के प्रति होने वाला राग बुरा हो। अच्छे लोगों के प्रति भी किया गया राग भी हिंसा होने से बुरा ही है। भाई ! इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। भगवान महावीर की यह अद्भुत बात जैनदर्शन का अनोखा अनुसंधान है। जबतक इस बात को गहराई से नहीं समझा जायेगा, तबतक महावीर की अहिंसा समझ में आना संभव नहीं है। भाई ! भगवान महावीर ने रागादिभावों की उत्पत्ति मात्र को हिंसा बताकर एक अद्भुत रहस्य का उद्घाटन किया है। अपनी पुरानी मान्यताओं को एक ओर रखकर पवित्र हृदय से यदि समझने का प्रयास किया जाये तो इस अद्भुत रहस्य को भी समझा जा सकता है, पाया जा सकता है, अपनाया जा सकता है और जीवन में जिया भी जा सकता है। यदि हम यह कर सके तो सहज सुख-शान्ति को भी सहज ही उपलब्ध कर लेंगे। इसमें कोई सन्देह नहीं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20